Sunday 24 February 2013

जय जीवन!


नहीं, कैंसर या मौत का भय मुझे तोड़ नहीं सकता। मैं अन्तिम साँस तक ज़ि‍न्‍दगी की जंग लड़ूँगी। बेशक, यह दुश्‍मन बहुत मज़बूत है। वह मेरे प्राण ले सकता है, लेकिन आत्‍मसमर्पण नहीं करवा सकता। उम्‍मीद मेरी अक्षय पूँजी है।
     इतना दर्द, इतनी तकलीफ़ मैंने कभी नहीं झेली। यह सच है। मेरे कुछ प्रिय साथी हर पल साथ हैं। कुछ रोज़ मिलने आते हैं। दर्द और रतजगे से निढाल, कुछ न खा पाने और उल्टियों से बेहाल, कई बार मैं चुपचाप पड़ी रहती हूँ। चाहकर भी उनसे कुछ बात नहीं कर पाती। शायद उन्‍हें लगता हो कि मैं हार मान रही हूँ। लेकिन नहीं साथियो, मेरी आत्‍मा अजेय है। लगातार क्षरित होता शरीर मुझे कभी भी कातर नहीं बना सकता। कल, हो सकता है, मेरे लिखने-पढ़ने-बोलने की बची-खुची ताक़त भी समाप्‍त हो जाये, तब भी मेरी क्रान्तिकारी भावनाएँ, मेरा आशावाद, मेरा संकल्‍प क़ायम रहेगा। यक़ीन कीजिए।
     मैं बहुत अधिक सैद्धान्तिक समझ वाली संगठनकर्ता कभी नहीं रही, पर एक कर्तव्‍यनिष्‍ठ सिपाही हमेशा रही हूँ। श्रमसाध्‍य कामों से कभी परहेज़ नहीं किया। नखरेबाज़, मनचाहा काम करने की चाहत रखने वालों, दिखावा करने वालों और नेता बनने को आतुर लोगों से मुझे गहरी चिढ़ होती है। ऐसे लोग इस ज़ि‍न्‍दगी में बहुत दिन नहीं टिक सकते। पतित और भगोड़े लोगों से घृणा मेरा स्‍थायी भाव है। घर बैठे नसीहत देने और ज्ञान बघारने वाले लोग मुझे गुबरैले कीड़े के समान लगते हैं।
    जबसे मेरे अन्‍दर कुछ समझदारी आयी, तभी से, कच्‍ची युवावस्‍था से ही मैं राजनीतिक परिवेश में रही और पूरा जीवन समर्पित करके राजनीतिक काम किया। किसी नये साथी की समझदारी से भी पहले मेरा ध्‍यान इस बात पर जाता है कि उसमें कितनी सच्‍ची क्रान्तिकारी भावना है, लक्ष्‍य के प्रति कितना समर्पण है। अठारह वर्षों लम्‍बा मेरा राजनीतिक जीवन है। पर लगता है, अभी कल की ही तो बात है। अभी तो महज़ शुरुआत है। अभी तो बहुत कुछ करना है। बहुत कुछ सीखना है। पर सबकुछ अपने हाथ में नहीं होता। फिर भी अन्तिम साँस तक क्रान्तिकारी की तरह ही जीना है।
    निकोलाई ओस्‍त्रोव्‍स्‍की मेरा प्रिय नायक है। वह मार्क्‍स, एंगेल्‍स, लेनिन, स्‍तालिन, माओ या बहुतेरे नेताओं जैसा महापुरुष नहीं था। वह रूसी क्रान्ति के हज़ारों समर्पित आम युवा कार्यकर्ताओं में से एक था। बहुत कम पढ़ा-लिखा था। बहुत कम आयु उसे जीने के लिए मिली। पर बीमारी और यंत्रणा उसे कभी तोड़ नहीं पायी। ऐसे हज़ारों क्रान्तिकारी हुए हैं। ये सामान्‍य लोग थे, आम लोगों की मुक्ति के लक्ष्‍य और उसे पाने के संघर्ष में जी-जान से की गयी भागीदारी ने उन्‍हें असाधारण बना दिया। ओस्‍त्रोव्‍स्‍की का आत्‍मकथात्‍मक उपन्‍यास 'अग्निदीक्षा' मैंने बार-बार पढ़ा है। हर युवा को पढ़ना चाहिए। उसके लेखों, साक्षात्‍कारों, और पत्रों का संकलन है - 'जय जीवन'। उसकी बातें एकदम अपनी लगती हैं। उसी पुस्‍तक के कुछ अंश अपने साथियों को पढ़ाना चाहती हूँ। हो सकता है, आपने पढ़ा भी हो। फिर भी उन्‍हें फिर से प्रस्‍तुत करने की इच्‍छा हो रही है।
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हम तन-मन से अपने नेताओं, अपने नायकों का अनुसरण करते थे और जब बीमारी ने मुझे खाट पर पटका तो मैंने अपने गुरुओं, पुराने बोल्‍शेविकों को यह दिखाने के लिये अपना सबकुछ सौंप दिया कि नयी पीढ़ी के युवक, कभी, किसी भी हालत में हार नहीं मानेंगे। मैंने अपनी बीमारी का मुकाबला किया। उसने मुझे तोड़ने की कोशिश की, सैन्‍यपंक्ति से मुझे बाहर निकालने की कोशिश की पर मैंने ललकारा - ''हम हथियार डालने वालों में नहीं हैं।'' मुझे विश्‍वास था कि मैं विजयी होऊॅंगा।
- निकोलाई ओस्‍त्रोव्‍स्‍की (जय जीवन)


दोस्‍ती, ईमानदारी, सामूहिकता, मानवता - ये हमारे साथी हैं। साहस और बहादुरी की शिक्षा, क्रान्ति के प्रति नि:स्‍वार्थ प्रेम और शत्रु से घृणा - ये हैं हमारे नियम।
- निकोलाई ओस्‍त्रोव्‍स्‍की

मैं जानता हूँ कि किसी भी क्षण मेरे जीवन का अन्‍त हो सकता है। जब आप मुझसे विदा होकर जायें, तो ऐन मुमकिन है कि एक तार मेरी मौत की सूचना देते हुए आपको मिले। इससे मैं डरता नहीं हूँ। इसीलिए मैं, बिना ख़तरे का ध्‍यान किये, बराबर काम किये जा रहा हूँ। अगर मैं स्‍वस्‍थ होता तो अपनी शक्ति अधिक सोच-समझकर ख़र्च करता, ता‍कि मैं अधिक काम कर सकूँ। पर मैं ऊँची चट्टान के कगार पर खड़ा हूँ, किसी समय भी मैं लुढ़ककर खाई में गिर सकता हूँ। यह मैं अच्‍छी तरह जानता हूँ। दो महीने हुए मुझे पित्‍त की बीमारी हुई। मैं हैरान हूँ कि मैं कैसे बच गया। पर ज्‍यों ही बुखार उतरा, मैंने काम करना शुरु कर दिया। और मैं लगातार 20 घण्‍टे रोजा़ना तक काम करता रहा, मुझे डर था कि मैं किताब खत्‍म होने से पहले मर न जाऊँ।
    मु्झे महसूस होता है कि मेरा जीवन ख़ात्‍मे पर है, और मुझे उस एक-एक मिनट का उपयोग करना है जो मेरे पास बच रहा है। उस समय तक, जबतक मेरा हृदय प्रज्‍ज्वलित और दिमाग साफ़ है। मौत मेरा पीछा कर रही है, इस कारण जीवन के प्रति आग्रह और भी तीव्र हो रहा है। यह कोई क्षणिक, छोटी-सी वीरता की बात नहीं है। मैंने हर उस दु:ख पर काबू पाया है जो जीवन से मुझे मिला : अंधापन, गतिहीनता, असहनीय शारीरिक पीड़ा। और मैं इस सबके बावजूद एक बड़ा सुखी आदमी हूँ।
- निकोलाई ओस्‍त्रोव्‍स्‍की

मैं अपने सपनों पर यदि दस मोटे ग्रंथ भी लिख दूँ, तो भी वे समाप्‍त न होंगे। मैं हर वक्‍त स्‍वप्‍न देखता रहता हूँ, सुबह से शाम तक, हाँ, और रात को भी। किस चीज़ के? यह कहना मुश्किल है। यह कोई फिज़ूल का सपना नहीं जो दिन-प्रतिदिन और एक महीने के बाद दूसरे महीने तक चलता रहे। वह हर वक्‍त बदलता रहता है - सूर्योदय की तरह, या सूर्यास्‍त की तरह मैं समझता हूँ कि स्‍वप्‍न देखना जीवन में फिर से ताज़गी लाने का अद्भुद साधन है। जब मेरी बहुत सी ताक़त ख़र्च हो जाती है, और मैं एक नि:शेष बैटरी की तरह महसूस करने लगता हूँ तब मुझे अपने को नयी ताकत प्रदान करने के साधन ढूँढने पड़ते हैं, कोई ऐसी चीज़ जिससे मेरी ताक़त फिर से जुट सके। मेरे स्‍वप्‍न - चाहे वे कभी-कभी कपोल-कल्पित जान पड़ें पर वे सदा इस धरती के होते हैं, इस जीवन के होते हैं। मैं असम्‍भव के सपने कभी नहीं देखता।...
     ...सपनों की कोई सीमा नहीं होती ... अक्‍सर मेरे मस्तिष्‍क के किसी कोने में एक छोटी सी चिन्‍गारी जल उठती है, और मेरी आँखों के सामने एक दृश्‍य बढ़ने और फैलने लगता है और एक विजयपूर्ण प्रयाण के दृश्‍य में परिणत हो जाता है। ऐसे सपनों से मुझे बहुत लाभ होता है। प्रेम, निजी सुख - मेरे सपने में इनके लिए स्‍थान बहुत कम है। आदमी अपने से झूठ कभी नहीं बोलता। उस खुशी से बढ़कर, जो एक सैनिक को मिलती है, मेरे लिए कोई और ख़ुशी नहीं। जो बिल्‍कुल निजी है, वह अल्‍पजीवी है। उसकी सम्‍भावनाएँ कभी इतनी विशाल नहीं हो पातीं, जितनी कि उस चीज़ की जो समूचे समाज से सम्‍बन्‍ध रखती है। मैं इसे अपने जीवन का सबसे गौरवमय कर्तव्‍य समझता हूँ, सबसे गौरवमय लक्ष्‍य, कि मनुष्‍य के उज्‍जवल भविष्‍य के लिए जो संघर्ष चल रहा है उससे मैं एक सैनिक बनूँ, और वह भी सबसे छोटा सैनिक नहीं। मेरा कर्तव्‍य है कि उस संघर्ष में नायक के स्‍थान पर लड़ूँ।
- निकोलाई ओस्‍त्रोव्‍स्‍की

जीवन का प्रत्‍येक दिन मेरे लिए यातना और पीड़ा के विरुद्ध विकट संघर्ष का दिन होता है। मेरे जीवन में दस साल से यही चल रहा है। जब तुम मेरे होठों पर मुस्‍कान देखते हो, तो यह मुस्‍कान सच्‍ची और सच्‍चे सुख की सूचक होती है। इन सब यातनाओं के होते हुए भी मैं खुश हूँ और इस खुशी का स्रोत है उन नित नये महान कामों की सम्‍पन्‍नता जो मेरे देश में हो रहे हैं। यातना और पीड़ा पर विजय पा लेने से बढ़कर कोई सुख नहीं। इसका अर्थ यह नहीं कि मनुष्‍य केवल जीता भर रहे, साँस भर लेता रहे (हालाँकि इसकी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती)। मेरा अभिप्राय संघर्ष और विजय से है।
     मैं जब मास्‍को से यहाँ आया तो थका हुआ और बीमार था। मैं बहुत परिश्रम करता रहा था। पर मेरी बीमारी से मेरे ओज की क्षति नहीं हो पायी। बल्कि इससे वह एक जगह सिमटकर इकट्ठा हो गया है। मैं अपने आप से कहा करता हूँ: ''याद रखो, संभव है तुम कल मर जाओ, जबतक तुम्‍हारे पास समय है, काम करते जाओ!''
और मैं काम में जुट गया। मेरे आस-पास के लोग हैरान रह गये। मैं बड़े उत्‍साह और उल्‍लास से काम करता था।
     मैं ऐसे आदमी से घृणा करता हूँ जो उँगली दुखने पर छटपटाने लगता है, जिसके लिए पत्‍नी की सनक क्रान्ति से अधिक महत्‍व रखती है, जो ओछी ईर्ष्‍या में घर की खिड़कियॉं और प्‍लेटें तक तोड़ने लगता है। या वह कवि जो हर क्षड़ ठंडी साँसें भरता हुआ व्‍याकुल रहता है, कुछ लिख पाने के विषय ढूँढता-फिरता है, और जब कभी विषय मिल जाता तो लिख नहीं पाता क्‍योंकि उसका मूड ठीक नहीं या उसे ज़ुकाम हो गया है और नाक चल रही है। उस आदमी की तरह जो गले में मफलर लपेटे डरता-काँपता घर से बाहर नहीं निकलता कि कहीं हवा न लग जाये। और उसे थोड़ी सी हरारत हो जाये तो डर से उसका खू़न सूखने लगता है, वह बिलखने लगता है, और अपना वसीयतनामा लिखने बैठ जाता है। इतना डरो नहीं, साथी! अपने ज़ुकाम के बारे में सोचना छोड़ दो। काम करने लगोगे तो तुम्‍हारा ज़ुकाम ठीक हो जायेगा।
     और उस लेखक से भी घृणा करता हूँ जो एक बैल की तरह हष्‍ट-पुष्‍ट है। पर पिछले तीन साल से अपनी किसी अपूर्ण पुस्‍तक में से एक टुकड़ा बार-बार अपने श्रोताओं को सुना-सुना कर पैसे कमा रहा है। हर बार पढ़ने के उसे दो सौ पचास रूबल भी मिल जाते हैं। ''मुझे अगले छ: साल तक एक शब्‍द भी लिखने की ज़रूरत नहीं।'' उसके पास लिखने के लिए वक्‍त ही नहीं। वह खाने सोने और औरतों के पीछे भागने में व्‍यस्‍त है - कैसी भी औरतें हों, सुन्‍दर या असुन्‍दर, सत्रह बरस की हों या सत्‍तर बरस की। स्‍वास्‍थ्‍य - हाँ, स्‍वास्‍थ्‍य का वह धनी है; पर उसके हृदय में कोई चिन्‍गारी नहीं।
     मैं कई शानदार वक्‍ताओं को जानता हूँ। वे अपने शब्‍दों से अद्भुत चित्र खींच सकते हैं, और अपने श्रोताओं को सदाचार, और नेकी से रहने का उपदेश देते हैं, पर उनके जीवन में ये गुण नहीं होते। मंच पर खड़े होकर वे अपने श्रोताओं को बड़े-बड़े काम करने का सदुपदेश देते हैं, पर उनका अपना जीवन घृणित और कुत्सित होता है। आप उस चोर की कल्‍पना करें जो ईमानदारी की शिक्षा देता है, जो ऊँची आवाज में चिल्‍ला-चिल्‍लाकर कहता है कि चोरी करना पाप है - और जब वह बोल रहा होता है, तो अपने श्रोताओं को ध्‍यान से देखता भी रहता है कि किसकी जेब वह आसानी से काट सकता है। या उस भगोड़े को लीजिये, जो खुद युद्धक्षेत्र से भागकर आया है, और सच्‍चे सैनिकों को स्‍वेच्‍छा से आगे बढ़ने का उपदेश दे रहा है। हमारे सैनिकों को उस जैसों के साथ कोई हमदर्दी नहीं। अगर वह उन्‍हें कहीं मिल जाये, तो मार-मारकर उसे अधमरा कर देंगे। और हमारे बीच ऐसे लेखक भी मौजूद हैं जो कहते कुछ हैं और करते कुछ और। यह चीज़ लेखक के पेशे से मेल नहीं खाती।
    लेखक का दुर्भाग्‍य तब शुरू होता है जब उसके विचार, उत्‍कृष्‍ट और सजीव, उसकी क़लम पर नहीं आ पाते; उसके दिल में तो आग की ज्‍वाला होती है, पर वह उसे जब काग़ज़ पर रखता है, तो वह अधबुझी, ठण्‍डी राख होती है। जिस सामग्री पर लेखक काम करता है, उसको अपनी आवश्‍यकतानुसार गढ़ना इतना कठिन होता है कि उससे बढ़कर कठिन काम दुनिया में न होगा।
- निकोलाई ओस्‍त्रोव्‍स्‍की

कितनी शक्ति, कितना असीम बोल्‍शेविक प्रयास मुझे अपने-आपको किसी अँधेरे कूप में गिरने से बचाये रखने के लिए व्‍यय करना पड़ता है, मेरा मन क्षोभ से भर उठता है। यही शक्ति किसी अच्‍छे काम में लगा पाता तो उपयोगी हो सकती थी।
    मैं अपने आस-पास के लोगों को देखता हूँ - बैलों की तरह हष्‍ट-पुष्‍ट, मगर मछलियों की तरह उनकी रगों में ठण्‍डा खून बहता है - निद्राग्रस्‍त, उदासीन, शिथिल, ऊबे हुए। उनकी बातों से क़ब्र की मिट्टी की बू आती है। मैं उनसे घृणा करता हूँ। मैं समझ नहीं सकता कि किस तरह स्‍वस्‍थ और तगड़े लोग, आज के उत्‍तेजनापूर्ण ज़माने में ऊब सकते हैं। मैं कभी इस तरह नहीं रहा, और न ही रहूँगा।
- निकोलाई ओस्‍त्रोव्‍स्‍की  

3 comments:

  1. shalini ji kavita ji se aapke bare me jana aur bahut garv hua aap par sath hi sach kahoon to is bat par bhi ki mera naam bhi vahi hai jo aapka hai .main to fihal yahi kah sakti hoon ki aapko meri bhi umr lag jaye taki desh ka aap jaise logon kee upasthiti se kuchh kalyan ho sake.ALL THE BEST .

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  2. धुएँ और लपटों से रची
    एक सँवलायी हुई आग.
    जलना नहीं
    सहनी है आँच
    और फिर चलना है आगे
    ताप और स्मृतियों के साथ.

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  3. शालिनी से

    हम लड़े हैं साथी
    उदास मौसम के खि़लाफ़
    हम लड़े हैं साथी
    एक नयी राह बनाते हुए,प्रतिकूल हवाओं
    के खि़लाफ़
    हम लड़े हैं साथी
    उखड़े तम्‍बुओं वालों की घिनौनी तोहमतों के खि़लाफ़
    हम लड़े हैं साथी,
    मौत पर राजनीति करने वाले
    गिद्धों के खि़लाफ़
    हम लड़े हैं साथी
    उल्‍टे पैर घर लौटती दुनियादारी के खि़लाफ़
    सीलन भरे अँधेरे के खि़लाफ़,
    वैचारिक प्रदूषण और दि‍खावटी प्रतिबद्धता के खि़लाफ़।
    और अब, हम लड़ेंगे साथी
    मौत की चुनौती के खि़लाफ़,
    षड्यंत्ररत मृतात्‍माओं के खि़लाफ़।
    हम लड़ेंगे
    कि ज़ि‍न्‍दगी ठहरी नहीं रहेगी।
    हम लड़ेंगे
    कि अभी बहुत सारे मोर्चे खुले हुए हैं
    जूझने और जीतने को।
    हम लड़ेंगे
    पीड़ा और यंत्रणा के खि़लाफ़
    हम लड़ेंगे
    सच्‍चे ज़ि‍न्‍दा लोगों की तरह
    क्‍योंकि उम्‍मीद एक ज़ि‍न्‍दा शब्‍द है।

    -कविता कृष्‍णपल्‍लवी

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