कामरेड शालिनी का राजनीतिक जीवन उनकी किशोरावस्था में ही शुरू हो चुका था, जब 1995 में लखनऊ से गोरखपुर जाकर उन्होंने एक माह तक चली एक सांस्कृतिक कार्यशाला में और फिर 'शहीद मेला' के आयोजन में हिस्सा लिया। इसके बाद वह गोरखपुर में ही युवा महिला कामरेडों के एक कम्यून में रहने लगीं। तीन वर्षों तक कम्यून में रहने के दौरान शालिनी स्त्री मोर्चे पर, सांस्कृतिक मोर्चे पर और छात्र मोर्चे पर काम करती रहीं। इसी दौरान उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास में एम.ए. किया। एक पूरावक़्ती क्रान्तिकारी कार्यकर्ता के रूप में काम करने का निर्णय वह 1995 में ही ले चुकी थीं।
जनचेतना, लखनऊ में एक कार्यक्रम में शालिनी |
वह 'जनचेतना' पुस्तक प्रतिष्ठान की सोसायटी की अध्यक्ष, 'अनुराग ट्रस्ट' के न्यासी मण्डल की सदस्य, 'राहुल फ़ाउण्डेशन' की कार्यकारिणी सदस्य और परिकल्पना प्रकाशन की निदेशक थीं। ग़ौरतलब है कि इतनी सारी विभागीय ज़िम्मेदारियों के साथ ही शालिनी आम राजनीतिक प्रचार और आन्दोलनात्मक सरगर्मियों में भी यथासम्भव हिस्सा लेती थीं।
का. शालिनी एक ऐसी कर्मठ, युवा कम्युनिस्ट संगठनकर्ता थीं जिनके पास अठारह वर्षों के कठिन, चढ़ावों-उतारों भरे राजनीतिक जीवन का समृद्ध अनुभव था। कम्युनिज़्म में अडिग आस्था के साथ उन्होंने एक मज़दूर की तरह खटकर राजनीतिक काम किया। इस दौरान, समरभूमि में बहुतों के पैर उखड़ते रहे। बहुतेरे लोग समझौते करते रहे, पतन के पंककुण्ड में लोट लगाने जाते रहे, घोंसले बनाते रहे हैं, दूसरों को भी दुनियादारी का पाठ पढ़ाते रहे या अवसरवादी राजनीति की दुकान चलाते रहे। शालिनी इन सबसे रत्तीभर भी प्रभावित हुए बिना अपनी राह चलती रहीं। एक बार जीवन लक्ष्य तय करने के बाद कभी पीछे मुड़कर उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। यहाँ तक कि उनके पिता ने भी जब निहित स्वार्थ और वर्गीय अहंकार के चलते पतित होकर कुत्सा-प्रचार और चरित्र-हनन का मार्ग अपनाया तो उनसे पूर्ण सम्बन्ध-विच्छेद कर लेने में शालिनी ने सेकण्ड भर की भी देरी नहीं की। एक सूदख़ोर, व्यापारी और भूस्वामी परिवार की पृष्ठभूमि से आकर, शालिनी ने जिस दृढ़ता के साथ सम्पत्ति-सम्बन्धों से निर्णायक विच्छेद किया और जिस निष्कपटता के साथ कम्युनिस्ट जीवन-मूल्यों को अपनाया, वह आज जैसे समय में दुर्लभ है और अनुकरणीय भी।
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