नहीं, कैंसर या मौत का भय मुझे तोड़ नहीं सकता। मैं अन्तिम साँस तक ज़िन्दगी की
जंग लड़ूँगी। बेशक, यह दुश्मन बहुत मज़बूत है। वह मेरे
प्राण ले सकता है, लेकिन आत्मसमर्पण नहीं करवा सकता। उम्मीद
मेरी अक्षय पूँजी है।
इतना दर्द, इतनी तकलीफ़ मैंने कभी नहीं झेली। यह सच है। मेरे कुछ प्रिय साथी हर पल
साथ हैं। कुछ रोज़ मिलने आते हैं। दर्द और रतजगे से निढाल,
कुछ न खा पाने और उल्टियों से बेहाल, कई बार मैं चुपचाप पड़ी
रहती हूँ। चाहकर भी उनसे कुछ बात नहीं कर पाती। शायद उन्हें लगता हो कि मैं हार
मान रही हूँ। लेकिन नहीं साथियो, मेरी आत्मा अजेय है। लगातार
क्षरित होता शरीर मुझे कभी भी कातर नहीं बना सकता। कल, हो सकता
है, मेरे लिखने-पढ़ने-बोलने की बची-खुची ताक़त भी समाप्त हो
जाये, तब भी मेरी क्रान्तिकारी भावनाएँ, मेरा आशावाद, मेरा संकल्प क़ायम रहेगा। यक़ीन कीजिए।
मैं बहुत अधिक सैद्धान्तिक समझ वाली
संगठनकर्ता कभी नहीं रही, पर एक कर्तव्यनिष्ठ
सिपाही हमेशा रही हूँ। श्रमसाध्य कामों से कभी परहेज़ नहीं किया। नखरेबाज़, मनचाहा काम करने की चाहत रखने वालों, दिखावा करने वालों
और नेता बनने को आतुर लोगों से मुझे गहरी चिढ़ होती है। ऐसे लोग इस ज़िन्दगी में
बहुत दिन नहीं टिक सकते। पतित और भगोड़े लोगों से घृणा मेरा स्थायी भाव है। घर बैठे
नसीहत देने और ज्ञान बघारने वाले लोग मुझे गुबरैले कीड़े के समान लगते हैं।
जबसे मेरे अन्दर कुछ समझदारी आयी, तभी से, कच्ची युवावस्था से ही मैं राजनीतिक परिवेश
में रही और पूरा जीवन समर्पित करके राजनीतिक काम किया। किसी नये साथी की समझदारी से
भी पहले मेरा ध्यान इस बात पर जाता है कि उसमें कितनी सच्ची क्रान्तिकारी भावना है, लक्ष्य के प्रति कितना समर्पण है। अठारह वर्षों लम्बा मेरा राजनीतिक जीवन
है। पर लगता है, अभी कल की ही तो बात है। अभी तो महज़ शुरुआत
है। अभी तो बहुत कुछ करना है। बहुत कुछ सीखना है। पर सबकुछ अपने हाथ में नहीं होता।
फिर भी अन्तिम साँस तक क्रान्तिकारी की तरह ही जीना है।
निकोलाई ओस्त्रोव्स्की मेरा प्रिय
नायक है। वह मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन, माओ या बहुतेरे
नेताओं जैसा महापुरुष नहीं था। वह रूसी क्रान्ति के हज़ारों समर्पित आम युवा कार्यकर्ताओं
में से एक था। बहुत कम पढ़ा-लिखा था। बहुत कम आयु उसे जीने के लिए मिली। पर बीमारी
और यंत्रणा उसे कभी तोड़ नहीं पायी। ऐसे हज़ारों क्रान्तिकारी हुए हैं। ये सामान्य
लोग थे, आम लोगों की मुक्ति के लक्ष्य और उसे पाने के संघर्ष
में जी-जान से की गयी भागीदारी ने उन्हें असाधारण बना दिया। ओस्त्रोव्स्की का आत्मकथात्मक
उपन्यास 'अग्निदीक्षा' मैंने बार-बार पढ़ा
है। हर युवा को पढ़ना चाहिए। उसके लेखों, साक्षात्कारों, और पत्रों का संकलन है - 'जय जीवन'। उसकी बातें एकदम अपनी लगती हैं। उसी पुस्तक के कुछ अंश अपने साथियों को
पढ़ाना चाहती हूँ। हो सकता है, आपने पढ़ा भी हो। फिर भी उन्हें
फिर से प्रस्तुत करने की इच्छा हो रही है।
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हम
तन-मन से अपने नेताओं, अपने नायकों का अनुसरण करते थे और जब बीमारी ने मुझे खाट पर पटका तो
मैंने अपने गुरुओं, पुराने बोल्शेविकों को यह दिखाने के
लिये अपना सबकुछ सौंप दिया कि नयी पीढ़ी के युवक, कभी, किसी भी हालत में हार नहीं मानेंगे। मैंने अपनी बीमारी का मुकाबला किया।
उसने मुझे तोड़ने की कोशिश की, सैन्यपंक्ति से मुझे बाहर
निकालने की कोशिश की पर मैंने ललकारा - ''हम हथियार डालने
वालों में नहीं हैं।'' मुझे विश्वास था कि मैं विजयी
होऊॅंगा।
- निकोलाई ओस्त्रोव्स्की (जय
जीवन)