हमारी प्यारी कॉमरेड, बहादुर युवा क्रांतिकारी और जनमुक्ति समर की वैचारिक-सांस्कृतिक बुनियाद खड़ी करने के अनेक क्रांतिकारी उपक्रमों की एक प्रमुख संगठनकर्ता शालिनी 29 मार्च की रात को हमसे हमेशा के लिए विदा हो गयीं।
पिछले जनवरी के दूसरे सप्ताह में उन्हें कैंसर होने का पता चला था और तभी से वे इस घातक मेटास्टैटिक कैंसर से बेहद जीवटता और बहादुरी के साथ जूझ रहीं थीं। कैंसर का पता चलते ही उन्हें इलाज के लिए दिल्ली के धर्मशिला कैंसर अस्पताल लाया गया था, जहां डॉक्टरों ने शुरू में ही बता दिया था कि कैंसर काफी उन्नत अवस्था में पहुंच चुका है और इसका पूर्ण इलाज संभव नहीं है। वे केवल दर्द से राहत देने और उम्र को लंबा खींचने के लिए उपचार कर सकते हैं। हालांकि धर्मशिला कैंसर अस्पताल के डॉक्टरों से बात करके वैकल्पिक उपचार की दो पद्धतियों से भी उनका उपचार साथ-साथ चल रहा था। उन पद्धतियों के चिकित्सकों को शालिनी के स्वस्थ हो जाने का काफी भरोसा था। कॉ. शालिनी शुरू से ही इस बात से अवगत थीं और अद्भुत जिजीविषा, साहस और खुशमिजाजी के साथ रोग से लड़ रहीं थीं।
जनवरी को उन्हें कीमोथिरैपी देनी शुरू की गयी और फरवरी तथा मार्च में इसके दो चक्र और दिये गये। चूंकि पहली कीमो की दवा ने ज्यादा असर नहीं किया था इसलिए दूसरे कीमो से डॉक्टरों ने कीमोथिरैपी की दवाएं बदल दी थीं। 29 मार्च से उन्हें तीसरी कीमोथिरैपी दी जानी थी। मगर इस बीच शालिनी के स्वास्थ्य में लगातार गिरावट आ रही थी। कीमो के पाश्र्व प्रभावों के कारण भी वे काफी कमजोर हो गयी थीं और बार-बार उल्टी और मितली के कारण कुछ भी खाना-पीना काफी मुश्किल होता था। पेट में बने ट्यूमर के कारण बार-बार पानी भर जाता था जिसे निकलवाने के लिए भी उन्हें अस्पताल जाना पड़ता था। शरीर में संक्रमण के कारण 2 मार्च से 10 मार्च तक और फिर 13 से 19 मार्च तक उन्हें अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। इस बीच उन्हें कीमोथिरैपी का तीसरा चक्र भी दिया गया। अस्पताल से आने के बाद भी उन्हें संक्रमण के बचने के लिए दिन में कई बार इंजेक्शन लेने पड़ रहे थे। 27 मार्च को उनका ब्लड प्रेशर काफी कम हो जाने के कारण उन्हें फिर अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। 28 मार्च की सुबह डॉक्टर उन्हें आई.सी.यू. में ले गये ताकि ब्लडप्रेशर सामान्य करने के लिए डोपामाइन का उपचार दिया जा सके। 29 मार्च की सुबह हम लोगों की बात शालिनी का उपचार कर रहे डॉक्टर अनीष मारू से हुई कि चूंकि कीमोथिरैपी का वांछित प्रभाव नहीं हो रहा है और आगे भी आपके अनुसार पूर्ण स्वस्थ होने की संभावना नहीं है तो क्यों न हम लोग प्राकृतिक चिकित्सा के एक प्रसिद्ध अस्पताल, कालीकट स्थित नेचर लाइफ इंटरनेशनल में उन्हें ले जायें जिनका कहना है कि वे ऐसे कुछ केस सफलतापूर्वक ठीक कर चुके हैं। डॉक्टर मारू ने कहा कि उन्हें कोई आपत्ति नहीं है और जैसे ही शालिनी यात्रा करने की स्थिति में हो जायें आप उन्हें ले जा सकते हैं। हम लोगों ने नेचर लाइफ के प्रमुख डा. जैकब से भी बात कर ली थी और शालिनी की यात्रा की व्यवस्था भी कर ली गयी थी। उनके साथ देखभाल कर रहे साथियों की पूरी टीम जाने वाली थी। शालिनी भी ऐसा ही चाहती थीं। इसी बीच 29 मार्च की रात 9 बजे अचानक आंतरिक रक्त स्राव और श्वास नली में रुकावट के कारण तीन-चार मिनट के लिए उनकी धड़कन रुक गयी जिसके बाद डॉक्टरों ने सीपीआर के द्वारा धड़कन फिर से शुरू की और उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया। आईसीयू के डॉक्टरों का कहना था कि इस घटना से उनकी स्थिति काफी बिगड़ गयी है और सुबह होने तक हम कुछ नहीं कह सकते। वहां मौजूद साथियों ने सभी साथियों और शालिनी की मां को तत्काल इसकी सूचना दे दी। इसके बाद करीब सवा ग्यारह बजे उन्हें फिर कार्डियेक अरेस्ट हुआ और डॉक्टरों ने दुबारा उन्हें रिवाइव करने की कोशिश की लेकिन इस बार उनके सभी प्रयास नाकाम रहे। 11:25 पर उन्होंने अंतिम सांस ली।
कॉमरेड शालिनी ने अपने राजनीतिक वसीयतनामे (अंतिम इच्छा) में लिखा था,
''यदि मैं ज़िन्दगी की जंग हार जाती हूँ
तो मेरे पार्थिव शरीर को
हम लोगों के प्यारे लाल झण्डे में अवश्य लपेटा जाये
और फिर उसे वैज्ञानिक प्रयोग या ग़रीब ज़रूरतमन्दों को अंगदान के उद्देश्य से
किसी सरकारी अस्पताल या मेडिकल कालेज को
समर्पित कर दिया जाये।
इस पर अमल का दायित्व विधि अनुसार
दो कामरेडों को मैं सौंप जाऊँगी।
यदि किसी कारणवश यह सम्भव न हो सके
तो मेरा पार्थिव शरीर
मेरे कामरेडों के कन्धों पर विद्युत शवदाहगृह तक जाना चाहिए
और मेरा अन्तिम संस्कार
बिना किसी धार्मिक रीति-रिवाज के,
इण्टरनेशनल की धुन और तनी मुट्ठियों के साथ होना चाहिए।''
हम लोग उनकी देहदान की इच्छा पूरी करने के की कानूनी प्रक्रिया जल्द से जल्द पूरी करना चाहते थे, लेकिन पहली प्राथमिकता उनका स्वास्थ्य था। मार्च के लगभग पूरे महीने ही उन्हें अस्पताल में बिताना पड़ा और घर पर भी उनकी स्थिति शरीर पर स्ट्रेन लेने की नहीं थी। इस वजह से उन्हें देहदान की कानूनी प्रक्रिया पूरी कर पानेका अवसर ही नहीं मिल पाया। दूसरे, डॉक्टरों सहित किसी को भी यह अनुमान ही नहीं था कि मृत्यु इतनी जल्दी उन्हें अपने आगोश में ले लेगी। कम्युनिस्ट उसूलों और कॉमरेड शालिनी की अंतिम इच्छा का सम्मान करते हुए उनके पार्थिव शरीर को लाल झंडे में लपेटकर रखा गया और तनी मुट्ठियो और इंटरनेशनल की धुन के साथ उसे साथियों ने सलामी दी। 30 मार्च 2013 को दिल्ली के लोधी रोड स्थित विद्युत शवदाहगृह में बिना किसी धामिर्क रीति रिवाज के, 'कॉ. शालिनी को लाल सलाम' और 'कॉ.शालिनी तुम जिंदा हो हम सबके संकल्पों में' के नारों के साथ उनकी अन्त्येष्टि की गयी।
कॉ. शालिनी का जीवन, क्रांतिकर्म के प्रति उनका एकनिष्ठ समर्पण, अपने निजी सुख-दुख और स्वप्नों-आकांक्षाओं की रत्ती भर परवाह किये बिना पूरी तरह जनमुक्ति संग्राम में अपनी भूमिका के प्रति उनकी प्रतिबद्धता आज के दौर में हम सबके लिए एक मिसाल है। कॉ.शालिनी की याद हमें इस रास्ते पर अडिग कदमों से आगे बढने की प्रेरणा देती रहेगी। अपने राजनीतिक जीवन के 18 वर्ष उन्होंने जिन कामोंको समर्पित किये उन्हें अंजाम तक पहुंचाने के लिए हम सब दुगुने उत्साह के साथ काम करेंगे, यह हमारा कॉ. शालिनी को वादा है। वे क्रांति और कम्युनिस्ट उसूलों से गहरा प्यार करती थीं और इन्हें गंदा करनेवालों से अपनी पोर-पोर से गहरी नफरत करती थीं। उनका जीवन इस बात की भी एक जीती-जागती गवाही है कि क्रांति के दुश्मनों से कभी कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए।
का. शालिनी : एक क्रान्तिकारी ज़िन्दगी का सफ़रनामा
कामरेड शालिनी का राजनीतिक जीवन उनकी किशोरावस्था में ही शुरू हो चुका था, जब 1995 में लखनऊ से गोरखपुर जाकर उन्होंने एक माह तक चली एक सांस्कृतिक कार्यशाला में और फिर 'शहीद मेला' के आयोजन में हिस्सा लिया। इसके बाद वह गोरखपुर में ही युवा महिला कामरेडों के एक कम्यून में रहने लगीं। तीन वर्षों तक कम्यून में रहने के दौरान शालिनी स्त्री मोर्चे पर, सांस्कृतिक मोर्चे पर और छात्र मोर्चे पर काम करती रहीं। इसी दौरान उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास में एम.ए. किया। एक पूरावक़्ती क्रान्तिकारी कार्यकर्ता के रूप में काम करने का निर्णय वह 1995 में ही ले चुकी थीं।
1998-99 के दौरान शालिनी लखनऊ आकर राहुल फ़ाउण्डेशन से मार्क्सवादी साहित्य के प्रकाशन एवं अन्य गतिविधियों में भागीदारी करने लगीं। 1999 से 2001 तक उन्होंने गोरखपुर में 'जनचेतना' पुस्तक प्रतिष्ठान की ज़िम्मेदारी सँभाली। नवम्बर 2002 से दिसम्बर 2003 तक उन्होंने इलाहाबाद में 'जनचेतना' के प्रभारी के रूप में काम किया। 2004 से लेकर अब तक वह लखनऊ स्थित 'जनचेतना' के केन्द्रीय कार्यालय और पुस्तक प्रतिष्ठान का काम सँभालती रही हैं। इसके साथ ही वह 'परिकल्पना', 'राहुल फ़ाउण्डेशन' और 'अनुराग ट्रस्ट' के प्रकाशन सम्बन्धी कामों में भी हाथ बँटाती रही हैं। 'अनुराग ट्रस्ट' के मुख्यालय की गतिविधियों (पुस्तकालय, वाचनालय, बाल कार्यशालाएँ आदि) की ज़िम्मेदारी उठाने के साथ ही का. शालिनी ने ट्रस्ट की वयोवृद्ध मुख्य न्यासी दिवंगत का. कमला पाण्डेय की जिस लगन और लगाव के साथ सेवा और देखभाल की, वह कोई सच्चा सेवाभावी कम्युनिस्ट ही कर सकता था। 2011 में 'अरविन्द स्मृति न्यास' का केन्द्रीय पुस्तकालय लखनऊ में तैयार करने का जब निर्णय लिया गया तो उसकी व्यवस्था की भी मुख्य ज़िम्मेदारी शालिनी ने ही उठायी।
इस समय वह 'जनचेतना' पुस्तक प्रतिष्ठान की सोसायटी की अध्यक्ष, 'अनुराग ट्रस्ट' के न्यासी मण्डल की सदस्य, 'राहुल फ़ाउण्डेशन' की कार्यकारिणी सदस्य और परिकल्पना प्रकाशन की निदेशक हैं। ग़ौरतलब है कि इतनी सारी विभागीय ज़िम्मेदारियों के साथ ही शालिनी आम राजनीतिक प्रचार और आन्दोलनात्मक सरगर्मियों में भी यथासम्भव हिस्सा लेती थीं।
का. शालिनी एक ऐसी कर्मठ, युवा कम्युनिस्ट संगठनकर्त थीं, जिनके पास अठारह वर्षों के कठिन, चढ़ावों-उतारों भरे राजनीतिक जीवन का समृद्ध अनुभव था। कम्युनिज़्म में अडिग आस्था के साथ उन्होंने एक मज़दूर की तरह खटकर राजनीतिक काम किया। इस दौरान, समरभूमि में बहुतों के पैर उखड़ते रहे । बहुतेरे लोग समझौते करते रहे , पतन के पंककुण्ड में लोट लगाने जाते रहे, घोंसले बनाते रहे, दूसरों को भी दुनियादारी का पाठ पढ़ाते रहे या अवसरवादी राजनीति की दुकान चलाते रहे । शालिनी इन सबसे रत्तीभर भी प्रभावित हुए बिना अपनी राह चलती रहीं । एक बार जीवन लक्ष्य तय करने के बाद कभी पीछे मुड़कर उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। यहाँ तक कि उनके पिता ने भी जब निहित स्वार्थ और वर्गीय अहंकार के चलते पतित होकर कुत्सा-प्रचार और चरित्र-हनन का मार्ग अपनाया तो उनसे पूर्ण सम्बन्ध-विच्छेद कर लेने में शालिनी ने सेकण्ड भर की भी देरी नहीं की। एक सूदख़ोर, व्यापारी और भूस्वामी परिवार की पृष्ठभूमि से आकर, शालिनी ने जिस दृढ़ता के साथ सम्पत्ति-सम्बन्धों से निर्णायक विच्छेद किया और जिस निष्कपटता के साथ कम्युनिस्ट जीवन-मूल्यों को अपनाया, वह आज जैसे समय में दुर्लभ है और अनुकरणीय भी।
काश साम्यवादी कामरेड्स युवा क्रांतिकारी कामरेड शालिनी को श्रद्धांजली हेतु यथार्थ-सत्य को अंगीकार कर लें तो मानव-कल्याण का हमारा मार्ग सुगम व साकार हो सकता है।http://krantiswar.blogspot.in/2013/04/blog-post.html
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