Thursday 21 February 2013

ए.ई. बुलहाक के नाम एफ़ ज़र्ज़ि‍न्‍स्‍की का पत्र

16 जून, 1913




फूल की तरह ही, मानव-आत्‍मा भी अचेतन रूप से सूर्य की किरणों का पान करती रहती है और शाश्‍वत रूप से उसकी, उसके प्रकाश की कामना करती रहती है। जब कोई बुराई प्रकाश को उसके पास तक पहुंचने से रोक देती है तो वह मुर्झा और सूख जाती है। मानवजाति के लिए अधिक सुन्‍दर भविष्‍य का निर्माण करने से सम्‍बन्धित हमारी प्रेरणा और निष्‍ठा का आधार प्रत्‍येक मानव आत्‍मा द्वारा प्रकाश प्राप्‍त करने की यही आ‍न्‍तरिक चेष्‍टा है; और, इसलिए, अपने पास निराशा को कभी नहीं हमें फटकने देना चाहिए। मानवजाति की सबसे बड़ी बुराई आज पाखण्‍ड है: शब्‍दों में प्रेम की बात करना, किन्‍तु व्‍यवहार में --- जीवन के लिए, तथाकथित ''सुख'' की प्राप्ति के लिए, पदोन्‍नति हासिल करने के लिए एक निर्मम संघर्ष करना...

दूसरों के लिए प्रकाश की एक किरण बनना, दूसरों के जीवन को देदीप्‍यमान करना, यह सबसे बड़ा सुख है जो मानव प्राप्‍त कर सकता है। इसके बाद कष्‍टों अथवा पीड़ा से, दुर्भाग्‍य अथवा अभाव से मानव नहीं डरता। फिर मृत्‍यु का भय उसके अन्‍दर से मिट जाता है, यद्यपि, वास्‍तव में, जीवन को प्‍यार करना वह तभी सीखता है। और, केवल तभी पृथ्‍वी पर आंखें खोलकर वह इस तरह चल पाता है जिससे वह सब कुछ देख, सुन और समझ सके; केवल तभी अपने संकुचित घोंघे से निकलकर वह बाहर प्रकाश में आ सकता है और समस्‍त मानवजाति के सुखों और दुखों का अनुभव कर सकता है। और केवल तभी वह वास्‍तविक मानव बन सकता है।

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