Sunday 24 February 2013

जय जीवन!


नहीं, कैंसर या मौत का भय मुझे तोड़ नहीं सकता। मैं अन्तिम साँस तक ज़ि‍न्‍दगी की जंग लड़ूँगी। बेशक, यह दुश्‍मन बहुत मज़बूत है। वह मेरे प्राण ले सकता है, लेकिन आत्‍मसमर्पण नहीं करवा सकता। उम्‍मीद मेरी अक्षय पूँजी है।
     इतना दर्द, इतनी तकलीफ़ मैंने कभी नहीं झेली। यह सच है। मेरे कुछ प्रिय साथी हर पल साथ हैं। कुछ रोज़ मिलने आते हैं। दर्द और रतजगे से निढाल, कुछ न खा पाने और उल्टियों से बेहाल, कई बार मैं चुपचाप पड़ी रहती हूँ। चाहकर भी उनसे कुछ बात नहीं कर पाती। शायद उन्‍हें लगता हो कि मैं हार मान रही हूँ। लेकिन नहीं साथियो, मेरी आत्‍मा अजेय है। लगातार क्षरित होता शरीर मुझे कभी भी कातर नहीं बना सकता। कल, हो सकता है, मेरे लिखने-पढ़ने-बोलने की बची-खुची ताक़त भी समाप्‍त हो जाये, तब भी मेरी क्रान्तिकारी भावनाएँ, मेरा आशावाद, मेरा संकल्‍प क़ायम रहेगा। यक़ीन कीजिए।
     मैं बहुत अधिक सैद्धान्तिक समझ वाली संगठनकर्ता कभी नहीं रही, पर एक कर्तव्‍यनिष्‍ठ सिपाही हमेशा रही हूँ। श्रमसाध्‍य कामों से कभी परहेज़ नहीं किया। नखरेबाज़, मनचाहा काम करने की चाहत रखने वालों, दिखावा करने वालों और नेता बनने को आतुर लोगों से मुझे गहरी चिढ़ होती है। ऐसे लोग इस ज़ि‍न्‍दगी में बहुत दिन नहीं टिक सकते। पतित और भगोड़े लोगों से घृणा मेरा स्‍थायी भाव है। घर बैठे नसीहत देने और ज्ञान बघारने वाले लोग मुझे गुबरैले कीड़े के समान लगते हैं।
    जबसे मेरे अन्‍दर कुछ समझदारी आयी, तभी से, कच्‍ची युवावस्‍था से ही मैं राजनीतिक परिवेश में रही और पूरा जीवन समर्पित करके राजनीतिक काम किया। किसी नये साथी की समझदारी से भी पहले मेरा ध्‍यान इस बात पर जाता है कि उसमें कितनी सच्‍ची क्रान्तिकारी भावना है, लक्ष्‍य के प्रति कितना समर्पण है। अठारह वर्षों लम्‍बा मेरा राजनीतिक जीवन है। पर लगता है, अभी कल की ही तो बात है। अभी तो महज़ शुरुआत है। अभी तो बहुत कुछ करना है। बहुत कुछ सीखना है। पर सबकुछ अपने हाथ में नहीं होता। फिर भी अन्तिम साँस तक क्रान्तिकारी की तरह ही जीना है।
    निकोलाई ओस्‍त्रोव्‍स्‍की मेरा प्रिय नायक है। वह मार्क्‍स, एंगेल्‍स, लेनिन, स्‍तालिन, माओ या बहुतेरे नेताओं जैसा महापुरुष नहीं था। वह रूसी क्रान्ति के हज़ारों समर्पित आम युवा कार्यकर्ताओं में से एक था। बहुत कम पढ़ा-लिखा था। बहुत कम आयु उसे जीने के लिए मिली। पर बीमारी और यंत्रणा उसे कभी तोड़ नहीं पायी। ऐसे हज़ारों क्रान्तिकारी हुए हैं। ये सामान्‍य लोग थे, आम लोगों की मुक्ति के लक्ष्‍य और उसे पाने के संघर्ष में जी-जान से की गयी भागीदारी ने उन्‍हें असाधारण बना दिया। ओस्‍त्रोव्‍स्‍की का आत्‍मकथात्‍मक उपन्‍यास 'अग्निदीक्षा' मैंने बार-बार पढ़ा है। हर युवा को पढ़ना चाहिए। उसके लेखों, साक्षात्‍कारों, और पत्रों का संकलन है - 'जय जीवन'। उसकी बातें एकदम अपनी लगती हैं। उसी पुस्‍तक के कुछ अंश अपने साथियों को पढ़ाना चाहती हूँ। हो सकता है, आपने पढ़ा भी हो। फिर भी उन्‍हें फिर से प्रस्‍तुत करने की इच्‍छा हो रही है।
... ... ...
हम तन-मन से अपने नेताओं, अपने नायकों का अनुसरण करते थे और जब बीमारी ने मुझे खाट पर पटका तो मैंने अपने गुरुओं, पुराने बोल्‍शेविकों को यह दिखाने के लिये अपना सबकुछ सौंप दिया कि नयी पीढ़ी के युवक, कभी, किसी भी हालत में हार नहीं मानेंगे। मैंने अपनी बीमारी का मुकाबला किया। उसने मुझे तोड़ने की कोशिश की, सैन्‍यपंक्ति से मुझे बाहर निकालने की कोशिश की पर मैंने ललकारा - ''हम हथियार डालने वालों में नहीं हैं।'' मुझे विश्‍वास था कि मैं विजयी होऊॅंगा।
- निकोलाई ओस्‍त्रोव्‍स्‍की (जय जीवन)

Saturday 23 February 2013

शालिनी का मेडिकल बुलेटिन - अपडेट, 22 फरवरी 2013



का. शालिनी को बदली हुई कीमोथिेरेपी के पहले चक्र की चौथी डोज़ 21 फरवरी को धर्मशिला अस्‍पताल में दी गई। उन्‍हें उल्टियों की शिकायत के कारण अभी तरल आहार ही दिया जा रहा है। उनका इलाज कर रहे डॉक्‍टर अनीश मारू के अनुसार कीमो के असर से अभी 2-3 दिन उल्टियों की परेशानी रहेगी। 7 मार्च को कीमोथिरेपी के अगले चक्र के लिए उन्‍हें फिर अस्‍पताल जाना है। उनकी होम्योपैथी चिकित्‍सा जारी है और फ्रूट थिरेपी का एक हिस्‍सा (तरल लेने वाला) फिर शुरू किया गया है। इस बीच आईं शालिनी की मेडिकल रिपोर्टें दिल्ली, मुंबई और बाहर के उन सभी डॉक्‍टरों के पास भेजी गई हैं जिनसे हम शुरू से राय लेते रहे हैं। एलोपैथिक चिकित्‍सा के क्षेत्र में सभी डॉक्‍टरों ने अब तक हमें यही राय दी है कि धर्मशिला अस्‍पताल में चल रहा इलाज बिल्‍कुल सही है और ऐसी स्थिति में अन्‍यत्र कहीं भी यही इलाज होगा। फिर भी, तीसरी कीमोथिरेपी के बाद हम दिल्ली, मुंबई और चेन्‍नई के संस्‍थानों में जाकर डॉक्‍टरों की राय लेंगे। वैकल्पिक चिकित्‍सा के संबंध में हमें बहुत से मित्रों ने सुझाव भेजे हैं।  अनुभवी मित्रों के परामर्श से यदि उनमें से किसी को साथ-साथ चलाया जा सकता है, तो हम उसे भी शुरू करेंगे।

Thursday 21 February 2013

ए.ई. बुलहाक के नाम एफ़ ज़र्ज़ि‍न्‍स्‍की का पत्र

16 जून, 1913




फूल की तरह ही, मानव-आत्‍मा भी अचेतन रूप से सूर्य की किरणों का पान करती रहती है और शाश्‍वत रूप से उसकी, उसके प्रकाश की कामना करती रहती है। जब कोई बुराई प्रकाश को उसके पास तक पहुंचने से रोक देती है तो वह मुर्झा और सूख जाती है। मानवजाति के लिए अधिक सुन्‍दर भविष्‍य का निर्माण करने से सम्‍बन्धित हमारी प्रेरणा और निष्‍ठा का आधार प्रत्‍येक मानव आत्‍मा द्वारा प्रकाश प्राप्‍त करने की यही आ‍न्‍तरिक चेष्‍टा है; और, इसलिए, अपने पास निराशा को कभी नहीं हमें फटकने देना चाहिए। मानवजाति की सबसे बड़ी बुराई आज पाखण्‍ड है: शब्‍दों में प्रेम की बात करना, किन्‍तु व्‍यवहार में --- जीवन के लिए, तथाकथित ''सुख'' की प्राप्ति के लिए, पदोन्‍नति हासिल करने के लिए एक निर्मम संघर्ष करना...

दूसरों के लिए प्रकाश की एक किरण बनना, दूसरों के जीवन को देदीप्‍यमान करना, यह सबसे बड़ा सुख है जो मानव प्राप्‍त कर सकता है। इसके बाद कष्‍टों अथवा पीड़ा से, दुर्भाग्‍य अथवा अभाव से मानव नहीं डरता। फिर मृत्‍यु का भय उसके अन्‍दर से मिट जाता है, यद्यपि, वास्‍तव में, जीवन को प्‍यार करना वह तभी सीखता है। और, केवल तभी पृथ्‍वी पर आंखें खोलकर वह इस तरह चल पाता है जिससे वह सब कुछ देख, सुन और समझ सके; केवल तभी अपने संकुचित घोंघे से निकलकर वह बाहर प्रकाश में आ सकता है और समस्‍त मानवजाति के सुखों और दुखों का अनुभव कर सकता है। और केवल तभी वह वास्‍तविक मानव बन सकता है।

शालिनी का मेडिकल बुलेटिन - अपडेट, 21 फरवरी 2013




का. शालिनी को 13 फरवरी को कीमोथिरेपी के दूसरे चक्र के लिए धर्मशिला अस्‍पताल में भरती किया गया था। उन्‍हें उल्टियों की भी शिकायत थी। पहले की जांचों में कैंसर की प्राइमरी साइट ओवरी / ईएचबी सिस्‍टम में होने के संकेत थे। सीरम 19.9 जो पहले 9089 तक बढ़ा हुआ था, इस बार 55801 तक बढ़ गया था जो कि रोग के फैलने का संकेत है। अस्‍पताल के ट्यूमर बोर्ड में केस पर दुबारा चर्चा की गई और कीमोथिरेपी को बदलने का निर्णय लिया गया। 14 से 16 फरवरी के बीच उन्‍हें कीमोथिरेपी की तीन डोज़ दी गईं। बार-बार उल्टियों के लिए भी उपचार दिया गया जिसके बाद उनकी स्थिति में सुधार आया। डॉक्‍टरों के अनुसार शालिनी ने कीमोथिरेपी को अच्‍छी तरह सहन किया और स्थिर दशा में उन्‍हें 17 फरवरी को अस्‍पताल से छुट्टी दी गई। चौथी डोज़ 21 फरवरी को दी जानी है। उनकी होम्‍योपैथी चिकित्‍सा इस बीच भी लगातार जारी है लेकिन अस्‍पताल में भरती रहने और उल्टियों के कारण फ्रूट थिरेपी लेने में 6 दिनों तक अंतराल रहा।

Tuesday 19 February 2013

अन्तिम एक गीत - सतीश कालसेकर


निमित्त: पाब्‍लो नेरूदा : एक साँग ऑफ़ डिस्‍पेयर


(प्रस्‍तुत कविता लघु पत्रिका आन्‍दोलन से उभरे प्रतिबद्ध मराठी कवि सतीश कालसेकर के 1970 में प्रकाशित काव्‍य संकलन 'इन्द्रियोपनिषद्' से निशिकांत ठकार ने अनूदित की है।) 

अन्तिम एक गीत तुम्‍हारे वास्‍ते लिखना चाहिए
और मिटा देना चाहिए यादों की यादों को
तुम आती थीं, तुम जाती थीं बोलती थीं न बोलती थीं
हर एक याद को बोलने वाली बनाते हुए अपनी एक पहली
और अन्तिम मृत्‍यु को कविताओं की पंक्तियों के बीच देखना चाहिए

अन्तिम एक गीत तुम्‍हारे वास्‍ते लिखना चाहिए
एक खामोश होते जा रहे विलाप को उँडेल देना चाहिए
समुद्र के एक अन्तिम मिलन को आँखों में बसाना चाहिए
हर एक हरी बेली को शुभकामना देनी चाहिए मन से
और सहगल की एक एक पंक्ति बिलखने वाली  बाँट देनी चाहिए

अन्तिम एक गीत तुम्‍हारे वास्‍ते लिखना चाहिए
दिल के भीतर कहीं कसमसाने वाली कसक को ऊपर आने देना चाहिए
हाथ पर उभरे नक्षत्रों की आहट सुनकर ईश्‍वर के साथ हस्‍तान्‍दोलन
अनजाने में चकमा देनेवाली दैवरेखाओं के लिए एक गुडबाइ
अपने भीतर एक आत्‍मगौरवपूर्ण पौरुष का अन्तिम अभिवादन

अन्तिम एक गीत तुम्‍हारे वास्‍ते लिखना चाहिए
हाँ ना हाँ ना करते हुए चुमकारा जहाँ होठों ने होठों को
स्‍तन थे जहाँ हाथ की कलाकार लम्‍बी खुरदरी अंगलियों पर गर्म-से
नखशिखान्‍त यौवन जहाँ आ गया था नर्म कोमल वासनाओं के उदगम के पास
वहीं पर थम जाना चाहिए फिर वापस लौट कर सर्वस्‍व के साथ

अन्तिम एक गीत तुम्‍हारे वास्‍ते लिखना चाहिए।

Monday 18 February 2013

मेरी पार्टी के लिए - पाब्‍लो नेरूदा

तुमने मुझमें जगाया बिरादराना भाव
                          अज्ञात लोगों के प्रति
तुमने जोड़ दी है मेरे साथ
                         तमाम ज़ि‍न्‍दा लोगों की ताक़त।
तुमने फिर से दिया है मुझे मेरा देश
                        जैसे एक नये जन्‍म में।
तुमने दी है मुझे वह आज़ादी जो
                       कोई अकेला पा नहीं सकता।
तुमने सिखाया मुझे सहेजना भलाई को,
                      आग की तरह।
तुमने दी है मुझे वह ऋजुता
                     कि तना रहूं पेड़ की मानिन्‍द।
तुमने सिखाया मुझे देखना इंसानों के
                   बीच एकता और अंतरों को।
तुमने दिखाया मुझे कि किस तरह एक शख्‍़स
                   की तकलीफ़ मिट जाती है सबकी जीत में।
तुमने सिखाया मुझे अपने भाइयों जैसे
                   सख्‍़त बिस्‍तरों पर सोना।
तुमने मुझसे रचाया चट्टान जैसे मज़बूत
                  यथार्थ की ज़मीन पर।
तुमने मुझे बनाया दुष्‍टों का दुश्‍मन और
                    दुख से विक्षिप्‍त लोगों की दीवार।
तुमने मुझे देखना सिखाया दुनिया की सच्‍चाई
                    और सुख की सम्‍भावना को।
तुमने मुझे बना दिया अविनाशी
                और मेरा अन्‍त नहीं होगा तुम्‍हारे साथ रहते हुए।

Wednesday 13 February 2013

जीवन-लक्ष्‍य



























(18 वर्ष की आयु में मार्क्‍स द्वारा लिखी गई कविता)


कठिनाइयों से रीता जीवन
मेरे लिए नहीं,
नहीं, मेरे तूफानी मन को यह स्‍वीकार नहीं।
मुझे तो चाहिए एक महान ऊंचा लक्ष्‍य
और उसके लिए उम्र भर संघर्षों का अटूट क्रम।
ओ कला! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्‍य कोषों के द्वार
मेरे लिए खोल!
अपनी प्रज्ञा और संवेगों के आलिंगन में
अखिल विश्‍व को बांध लूंगा मैं!


आओ,
हम बीहड़ और कठिन सुदूर यात्रा पर चलें
आओ, क्‍योंकि -
छिछला, निरुद्देश्‍य और लक्ष्‍यहीन जीवन
हमें स्‍वीकार नहीं।
हम, ऊंघते कलम घिसते हुए
उत्‍पीड़न और लाचारी में नहीं जियेंगे।
हम - आकांक्षा, आक्रोश, आवेग, और
अभिमान में जियेंगे!
असली इन्‍सान की तरह जियेंगे।

Saturday 2 February 2013

एक क्रान्तिकारी की जीवन-रक्षा के लिए कामरेडों और साथियों से एक ज़रूरी अपील

दोस्‍तो और कामरेडो,

कामरेड शालिनी इस समय मेटास्‍टैटिक कैंसर के विरुद्ध जीवन-मृत्‍यु की लड़ाई लड़ रही हैं। हमारी कोशिश है कि देश में उपलब्‍ध सर्वोन्‍नत चिकित्‍सा-सुविधा उन्‍हें उपलब्‍ध करायी जाये। फिलहाल धर्मशिला कैंसर अस्‍पताल एवं रिसर्च सेंटर, दिल्‍ली में उनका इलाज हो रहा है और साथियों की मदद से टाटा मेमोरियल कैंसर इंस्‍टीट्यूट, हिन्‍दुजा अस्‍पताल, लीलावती अस्‍पताल (मुम्‍बई) तथा आयरलैण्‍ड एवं यू.एस. के विशेषज्ञों के चिकित्‍सीय परामर्श भी हमें मिल रहे हैं। इसके अतिरिक्‍त हम वैकल्पिक चिकित्‍सा-पद्धतियों को भी अपना रहे हैं।

का. शालिनी युवावस्‍था की दहलीज़ पर क़दम रखने के साथ ही वाम क्रान्तिकारी आन्‍दोलन में सक्रिय हो गयी थीं। 1995 से उनका जीवन क्रान्ति के लिए पूर्णत: समर्पित रहा है। इस दौरान वह छात्रों, स्त्रियों और संस्‍कृति के मोर्चे पर सक्रिय रहीं। प्रगतिशील साहित्‍य के प्रकाशन एवं वितरण की हम लोगों की सभी परियोजनाओं (जनचेतना, राहुल फ़ाउण्‍डेशन, परिकल्‍पना, अनुराग ट्रस्‍ट) की वह प्रमुख स्‍तम्‍भ रही हैं। सम्‍प्रति वे जनचेतना की सोसायटी की अध्‍यक्ष, राहुल फ़ाउण्‍डेशन की कार्यकारिणी सदस्‍य, परिकल्‍पना की निदेशक और अनुराग ट्रस्‍ट की एक न्‍यासी हैं। का. शालिनी का अठारह वर्षों का क्रान्तिकारी जीवन जुझारू, समझौताविहीन, सिद्धान्‍तनिष्‍ठ और क़ुर्बानियों भरे क्रान्तिकारी जीवन की एक मिसाल रहा है। इस बहुमूल्‍य जीवन की हिफ़ाज़त के लिए हम लोग हर सम्‍भव प्रयास करने के लिए संकल्‍पबद्ध हैं।

लेकिन इसके लिए हमें अपने सभी दोस्‍तों, कामरेडों और प्रगतिशील, जनवादी, वामपंथी बुद्धिजीवियों तथा संवेदनशील नागरिकों की सहायता की आसन्‍न आवश्‍यकता है। कैंसर की इस किस्‍म का इलाज भारत में अत्‍यधिक खर्चीला है। इसलिए, एक बहुमूल्‍य क्रान्तिकारी जीवन की रक्षा के लिए हम यह अर्जेन्‍ट अपील जारी कर रहे हैं।

एक और स्‍पष्‍टीकरण यहाँ ज़रूरी है। हम इस उद्देश्‍य के लिए सरकार से, पूँजीवादी प्रतिष्‍ठानों से, विदेशी वित्तपोषित एन.जी.ओ. से या चुनावी पार्टियों से कोई मदद नहीं लेंगे। किसी अज्ञात स्रोत से प्राप्‍त धन भी हमें अस्‍वीकार्य होगा। यह हम लोगों का उसूल है और का. शालिनी का भी ऐसा ही पुरज़ोर आग्रह है। हमें केवल उन कामरेडों और शुभचिन्‍तकों से सहयोग चाहिए, जो कम या ज़्यादा राजनीतिक मतभेदों के बावजूद, हमारी क्रान्तिकारी निष्‍ठाऔर ईमानदारी पर भरोसा रखते हैं। का. शालिनी का यह भी आग्रह है कि चूँकि अपने पिता की विध्‍वंसक क्रान्ति-विरोधी गतिविधियों के चलते वे बरसों पहले परिवार से सारे रिश्‍ते तोड़ चुकी हैं, अत: परिवार से किसी भी प्रकार की वित्तीय सहायता उन्‍हें कतई स्‍वीकार नहीं होगी। का. शालिनी की भावनाओं का पूरा सम्‍मान करते हुए हम ऐसा ही करेंगे। हमें विश्‍वास है कि एक क्रान्तिकारी के बहुमूल्‍य जीवन की रक्षा के लिए पूरे देश से कामरेडों, दोस्‍तों और शुभचिन्‍तकों के हज़ारों हाथ आगे आयेंगे। सहयोग करने के लिए इच्‍छुक साथी हमसे निम्‍नलिखित फोन नम्‍बर, ईमेल और डाक-पते पर सम्‍पर्क कर सकते हैं:

फोन: 9910462009 / 8853093555; ईमेल: satyamvarma@gmail.com;

पत्र-व्‍यवहार हेतु: सत्‍यम, फ़्लैट नम्‍बर 250, एमआईजी, सेक्‍टर 28, रोहिणी, दिल्‍ली-110085

आपके सम्‍पर्क करने के बाद हम चेक/ड्राफ़्ट/मनीऑर्डर भेजने या एकाउंट ट्रांसफ़र करने के लिए ज़रूरी जानकारियाँ तत्‍काल भेज देंगे।

क्रान्तिकारी अभिवादन सहित, - जनचेतना, राहुल फ़ाउण्‍डेशन, परिकल्‍पना, अनुराग ट्रस्‍ट, अरविन्‍द स्‍मृति न्‍यास, स्‍त्री मुक्ति लीग, दिशा छात्र संगठन, नौजवान भारत सभा और बिगुल मज़दूर दस्‍ता से जुड़े कार्यकर्तागण

शालिनी का मेडिकल बुलेटिन - अपडेट, 11 फरवरी 2013

23 जनवरी को हुई बायोप्‍सी की रिपोर्ट में कैंसर की प्राइमरी साइट के बारे में पुष्टि न हो पाने पर इसी बायोप्‍सी के आधार पर की गयी इम्‍यूनोहिस्‍टोकेमिस्‍ट्री जाँचों की रिपोर्ट 5 फरवरी को मिली जिसे देखने के बाद डॉक्‍टरों ने कहा कि प्राइमरी साइट 'एक्‍स्‍ट्रा हेपेटिक बिलियरी सिस्‍टम' में कहीं हो सकती है। लेकिन उनका कहना है कि इसके आधार पर कीमोथेरेपी के अगले चक्र में दवा बदलने या उपचार में कोई बदलाव करने की ज़रूरत नहीं है। ट्यूमर की वजह से पेट में पानी (एसाइटिक फ्लुइड) भरने की समस्‍या बनी हुई है और पिछली कीमोथेरेपी के बाद से दो बार शालिनी को अस्‍पताल ले जाकर पानी निकलवाना पड़ा है। डॉक्‍टरों को उम्‍मीद है कि कीमो के दूसरे चक्र के बाद इसमें कमी आयेगी। इस बीच शालिनी के लक्षणों में किंचित सुधार हुआ है; पहले की तुलना में अब वे थोड़ा-थोड़ा आहार ले सकती हैं और थोड़ा सो पा रही हैं, लेकिन शरीर में दर्द बढ़ गया है। कीमोथिरेपी के साइड इफ़ेक्‍ट्स भी दिख रहे हैं। होम्‍योपैथी की दवा वह लगातार ले रही हैं और डा. जितेंद्र शर्मा फ़ोन पर बीच-बीच में परामर्श देते रहते हैं। फ़्रूट थेरेपी भी चल रही है। 13 फरवरी की सुबह शालिनी को फिर अस्‍पताल में भरती होना है जहां कीमो देने से पहले फिर से उनकी कुछ जांचें की जाएंगी।

अभी तक धर्मशिला अस्‍पताल में चल रहे इलाज के बारे में सभी विशेषज्ञ, जिनसे हम परामर्श कर पाये हैं, उनका कहना है कि यह बिल्‍कुल सही है और कहीं भी ले जाने पर यही उपचार दिया जायेगा। लेकिन जहां भी संभव हो, हम अन्‍य विशेषज्ञों से राय लेने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। साथ ही, अन्‍य वैकल्पिक चिकित्‍सा उपचारों के बारे में भी हम पता लगा रहे हैं। यदि किसी मित्र को किसी प्रभावी और अनुभवसिद्ध उपचार के बारे में जानकारी हो तो कृपया हमें ज़रूर बताएं।


शालिनी का चिकित्‍सा बुलेटिन, 2 फरवरी 2013

शालिनी को जनवरी के दूसरे सप्‍ताह में कैंसर होने का पता चला। लखनऊ में 9 से 13 जनवरी के बीच हुई हुई जाँचों के आधार पर डॉक्‍टरों ने इसे ओवेरियन कैंसर की तीसरी अवस्‍था बताया। इसके बाद दिल्‍ली में धर्मशिला कैंसर अस्‍पताल में उनकी नए सिरे से जाँच हुई जिसमें डॉक्‍टरों ने पाया कि उनका कैंसर काफ़ी बढ़ा हुआ है और हड्डि‍यों में मेटास्‍टैसिस (कैंसर की कोशिकाओं का शरीर के अन्‍य भागों में फैलने लगना) शुरू हो चुका है। 18 जनवरी से जारी कई जाँचों के बाद भी डॉक्‍टर अभी निश्‍चित रूप से यह नहीं कह पा रहे हैं कि कैंसर का स्रोत क्‍या है। लेकिन उन्‍हें ऐसा लगता है कि यह ओवेरियन (अंडाशय के) कैंसर का सीधा मामला नहीं है। 23 जनवरी को हुई बायोप्‍सी से भी स्‍पष्‍ट पता नहीं चल सका। मगर डॉक्‍टरों ने 23 को ही कीमोथेरेपी की शुरुआत कर दी थी। अब इसी बायोप्‍सी के आधार पर की जा रही इम्‍यूनोहिस्‍टोकेमिस्‍ट्री जाँचों की रिपोर्ट 4 फरवरी को मिलेगी जिससे कैंसर के स्रोत के बारे में पता चलने की उम्‍मीद है। इसके आधार पर कीमोथेरेपी के अगले चक्र में दवा बदली जा सकती है।

डॉक्‍टरों के अनुसार शालिनी के कैंसर का पूरी तरह (क्‍योरेटिव) इलाज सम्‍भव नहीं है और वे उम्र लम्‍बी करने और लक्षणों से राहत देने के लिए उपचार (पैलिएटिव ट्रीटमेंट) दे सकते हैं। 23-24 जनवरी को उन्‍हें कीमोथेरेपी का पहला चक्र दिया गया। डॉक्‍टरों का कहना है कि 21-21 दिनों पर कीमोथेरेपी के तीन चक्र देने के बाद इसके प्रतिसाद के आधार पर वे आगे के उपचार के बारे में निर्णय लेंगे। श्रोणीय ट्यूमर की वजह से शालिनी के पेट में पानी भर जाता है जिसे 3-4 दिनों के अन्‍तर पर निकलवाना पड़ता है। वे कमज़ोर हो गयी हैं और शरीर में दर्द र‍हता है।

शालिनी की सभी रिपोर्टें टाटा मेमोरियल कैंसर इंस्‍टीट्यूट, मुम्‍बई की डा. सीमा मेढी, हिन्‍दुजा अस्‍पताल मुम्‍बई के डा. मुराद ई. लाला, लीलावती अस्‍पताल, मुम्‍बई के डा. हेमन्‍त मल्‍होत्रा, बेलफ़ास्‍ट हॉस्पिटल, आयरलैंड में क्‍लीनिकल ऑन्‍कोलॉजी में शोध कर रहे डा. प्रान्तिक दास, अमेरिका के डा. अरूप मांगलिक सहित कई विशेषज्ञों को भेजी गयी हैं और सभी की यही राय है कि अभी उन्‍हें दी जा रही चिकित्‍सा बिल्‍कुल उपयुक्‍त और सही है। आगे जो भी नई रिपोर्टें मिलेंगी उन्‍हें भी इन विशेषज्ञों के पास भेजकर उनकी राय ली जायेगी। इसके साथ ही दिल्‍ली में एम्‍स के रोटरी मेडिकल सेंटर और राजीव गांधी कैंसर इंस्‍टीट्यूट के डॉक्‍टरों की भी हम राय लेने की कोशिश कर रहे हैं।

इस बीच शालिनी का होम्‍योपैथिक इलाज भी साथ-साथ शुरू किया गया है। जगाधरी (हरियाणा) के डा. जितेन्‍द्र शर्मा का विश्‍वासपूर्वक कहना है कि उनके उपचार से शालिनी को काफ़ी फ़ायदा होगा। वे कैंसर के कुछ गम्‍भीर रोगियों का इलाज सफलतापूर्वक कर चुके हैं और मेटास्‍टैटिक कैंसर के एक रोगी का भी कुछ महीनों से उपचार कर रहे हैं जिसे फ़ायदा दिख रहा है। डा. शर्मा एक मार्क्‍सवादी हैं और आधुनिक चिकित्‍सा पद्धतियों से वाकिफ़ रहने के साथ ही होम्‍योपैथी की सीमाओं को भी समझते हैं और इसमें किये जा रहे शोध-अनुसन्‍धान से भी परिचित हैं। वे फ़ोन पर भी शालिनी के सम्‍पर्क में रहते हैं और आवश्‍यकतानुसार सुझाव देते रहते हैं।

इसके अलावा शालिनी को ''फ्रूट थेरेपी’’ भी दी जा रही है। इसमें गुयाबानो या सोरसोप नाम के फल का गूदा और उसकी पत्ति‍यों से बनी चाय का नियमित सेवन करना होता है। लातिनी अमेरिका और दक्षिणपूर्व एशिया के वर्षावनों में पाये जाने वाले इस फल के कैंसर पर असर के बारे में 1970 के दशक में अमेरिका के नेशनल कैंसर इंस्‍टीट्यूट ने शोध किया था जिसमें पाया गया था कि यह कीमोथेरेपी से कई गुना ज़्यादा असर करता है और कीमोथेरेपी के विपरीत सिर्फ़ कैंसर कोशिकाओं को ही मारता है। बाद में पर्ड्यू युनिवर्सिटी और दक्षिण कोरिया की कैथोलिक युनिवर्सिटी में हुए शोधों में भी इसकी पुष्टि हुई। कई वेबसाइटों पर मौजूद लेखों में कहा गया है कि कैंसर की दवाओं से खरबों डालर कमाने वाली ब‍हुराष्‍ट्रीय दवा कम्‍पनियों के दबाव में अमेरिका में इन शोधों को रोक दिया गया। एक बहुराष्‍ट्रीय दवा कम्‍पनी ने ख़ुद इस पर लम्‍बा शोध किया था लेकिन जब उसे लगा कि इसके कुदरती तत्‍वों को पेटेण्‍ट करने योग्‍य रासायनिक अवयवों में नहीं बदला जा सकता तो शोध को रोक दिया गया और इसके नतीजों को दबा दिया गया। दवा कम्‍पनियों के ही दबाव में इसका व्‍यापक प्रचार-प्रसार नहीं हो पा रहा है लेकिन स्‍वतंत्र रूप से दुनियाभर में काफ़ी लोग इसका उपयोग कर रहे हैं। ब्राज़ील से मंगवाकर फल की आपूर्ति करने वाली हैदराबाद के अलवी हर्ब्‍स का कहना है कि चार हफ़्तों में इसका असर मेडिकल जाँचों में भी दिखने लगेगा।

यह स्‍पष्‍ट करना ज़रूरी है कि उपरोक्‍त वैकल्पिक चिकित्‍सा-पद्धतियों का प्रयोग धर्मशिला अस्‍पताल की डा. कमलेश मिश्रा और डा. अनीश मारू की देखरेख में चल रहे एलोपैथिक उपचार के साथ-साथ और उनकी जानकारी में चल रहा है। इससे मुख्‍य उपचार में कोई हस्‍तक्षेप नहीं है। आगे भी यदि हमें किसी बेहतर वैकल्पिक चिकित्‍सा का पता चलता है तो उसे तभी अपनाया जायेगा जब उससे मुख्‍य उपचार में कोई हस्‍तक्षेप न होता हो।

मेरी आख़ि‍री इच्‍छा


(एक क्रान्तिकारी का वसीयतनामा) 


-- शालिनी 



कम्‍युनिस्‍ट हर लड़ाई अपनी पूरी ताक़त के साथ लड़ते हैं।

एक सांघातिक रोग है मेटास्‍टैटिक कैंसर -- मैं जानती हूँ

इसलिए मैं लड़ रही हूँ इसके विरुद्ध अपनी सम्‍पूर्ण इच्‍छाशक्ति के साथ।

मैं अभी भरपूर जीना चाहती हूँ और मुझे विश्‍वास है

कि मेरी जिजीविषा मृत्‍यु को परास्‍त कर देगी

और अगर ऐसा न भी हुआ

तो भी मैं यह तो सिद्ध कर ही दूँगी

कि सच्‍चे क्रान्तिकारी न तो कठिन समय के सामने

हथियार डालते हैं, न ही मौत के सामने

कातर होकर आत्‍मसमर्पण करते हैं।



मुझे भरोसा है अपनी संकल्‍पशक्ति और युयुत्‍सा पर

और मैं जानती हूँ कि मुझे यह जंग जीतकर

फिर उस मोर्चे पर वापस लौटना है

जिस पर ताज़ि‍न्‍दगी तैनात रहने का

अपनी आत्‍मा से करार है।

इसलिए, पूरी सम्‍भावना है कि मेरी इस आख़ि‍री इच्‍छा का,

मेरे इस वैचारिक वसीयतनामे का

कल कोई मतलब ही न रह जाये,

लेकिन पूरी बहादुरी से लड़ने के बावजूद,

अन्तिम साँस तक, एक सच्‍चे कम्‍युनिस्‍ट की तरह,

हारना ही पड़े अगर कहीं मुझको,

तो उस सूरत में यह अन्तिम-इच्‍छा पत्र

मैं अपने कामरेडों-दोस्‍तों के नाम छोड़ना चाहती हूँ।



मैं जानती हूँ, कैंसर को पराजित करना ही है मुझे।

मेरे कामरेडों का प्‍यार और दर्द मेरे साथ है।

मुझे लौटना ही है पूँजी के विरुद्ध जारी युद्ध में

अपने मोर्चे पर, आने वाली पीढ़ि‍यों की ख़ातिर।

फिर भी यदि ऐसा न हो सका,

तो मेरे साथी इस बात का पूरा ख़्याल रखेंगे

कि मेरे शरीर को छू न सकें उनके गन्‍दे हाथ

जिन्‍होंने हमारे लाल झण्‍डे पर गन्‍दगी फेंकी

जिन्‍होंने हड्डियाँ गलाकर खड़े किये गये

हमारे प्रयोगों को कुत्‍सा-प्रचारों से लांछित और कलंकित किया,

जिन्‍होंने 'जनचेतना' और हमारे प्रकाशनों को

मुनाफ़ा कमाने का उपक्रम बताया, सच्‍चाई जानते हुए भी।

मेरे शरीर के आसपास भी फटकने नहीं चाहिए

वे कीड़े, जिन्‍होंने अपने पतन को ढँकने के लिए

हम पर तरह-तरह की घृणित तोहमतें लगायीं और कम्‍युनिस्‍ट क्रान्तिकारी कतारों के बीच

अविश्‍वास का ज़हरीला धुआँ फैलाने की भरपूर कोशिश की।

कठिन समय में धुआँ छोड़ते हुए भागकर माँदों में घुस जाने वाले

भगोड़े न जाने किस मुँह से सिद्धान्‍तों की दुहाई देते हैं।

कुछ ऐसे भी पतित अवसरवादी हैं जो अपनी अहंतुष्टि के लिए

और पेट पालने के लिए अभी भी राजनीतिक दुकानें चलाते हैं।

ये घृणित लोग मौत और बीमारी को भी राजनीतिक हथियार बनाकर

हम लोगों को निशाना बनाते रहे हैं।

मेरा धनपशु पिता भी इसी गिरोह में शामिल है

जो अपने वर्गीय अहं और निहित स्‍वार्थों के चलते

अन्‍धा होकर हमारे कामों को नुकसान पहुँचाने की

हर सम्‍भव कोशिश करता रहा है,

उसकी भी अपनी वर्गीय प्रतिबद्धता है

और वह कभी भी नहीं बदलेगा।

साथियो! ऐसे लोग कत्तई नहीं आयें

मेरे निष्‍प्राण शरीर के निकट भी,

इसका ध्‍यान आप सबको रखना होगा,

यह मेरी आख़ि‍री इच्‍छा है।



साथियो! मैं जन्‍म से मज़दूर की बेटी नहीं हूँ।

मैं एक सूदख़ोर, व्‍यापारी, भूस्‍वामी, परजीवी

धनपशुओं के परिवार में पैदा हुई।

कम्‍युनिज़्म की भावना जैसे-जैसे समझ में आयी,

मैंने ख़ुद को मज़दूर की बेटी समझने की कोशिश की,

मज़दूर की तरह क्रान्ति के मोर्चे पर खटने की कोशिश की।

नहीं जानती मैं कितना कर्ज़ उतार पायी हूँ जनता का,

कितना पाप धो पायी हूँ पूर्वजों का --

इसका फ़ैसला मेरे बाद के लोग करेंगे।

मैं बस इतना भरोसा दिला सकती हूँ

कि घर-वापसी का ख़्याल मेरे दिल में कभी नहीं आया,

तूफानों से पीछे हटकर

घोंसला बनाने का विचार मुझे कभी नहीं भाया।

एक आम कम्‍युनिस्‍ट की तरह

मेरी भी रही हैं सहज मानवीय कमज़ोरियाँ,

और पृष्‍ठभूमि से अर्जित कुछ वर्गीय कमज़ोरियाँ भी।

मेरा यह दावा नहीं कि कभी मेरे भीतर

निराशा का कोई झोंका नहीं आया,

ऐसा भी नहीं कि साथियों से कभी कोई

शिकायत ही न रही हो,

फिर भी मैं विश्‍वास दिला सकती हूँ कि

मैं बेहतर कम्‍युनिस्‍ट बनने की कोशिशों में ही

सन्‍तोष और ख़ुशी हासिल करती रही हूँ,

मैं अपने साथियों को ही दुनिया में सबसे अधिक

प्‍यार करती हूँ और भरोसेमन्‍द मानती हूँ

और मैं अभी भी ज़ि‍न्‍दगी से बेपनाह मुहब्‍बत करती हूँ

और ज़्यादा से ज़्यादा जीना चाहती हूँ।



इसीलिए, मुझे विश्‍वास है कि मेरी ही जीत होगी

मृत्‍यु के विरुद्ध मेरे इस संघर्ष में

कैंसर को हारना ही है मेरी कम्‍युनिस्‍ट संकल्‍पशक्ति के आगे।

लेकिनफिर भी एक सच्‍चे कम्‍युनिस्‍ट की तरह मैं तैयार हूँ

हर प्रतिकूल स्थिति का सामना करने के लिए

और इसीलिए अपनी यह हार्दिक इच्‍छा भी लिख दे रही हूँ

कि यदि मैं ज़ि‍न्‍दगी की जंग हार जाती हूँ

तो मेरे पार्थिव शरीर को

हम लोगों के प्‍यारे लाल झण्‍डे में अवश्‍य लपेटा जाये

और फिर उसे वैज्ञानिक प्रयोग या ग़रीब ज़रूरतमन्‍दों को अंगदान के उद्देश्‍य से

किसी सरकारी अस्‍पताल या मेडिकल कालेज को

समर्पित कर दिया जाये।

इस पर अमल का दायित्‍व विधि अनुसार

दो कामरेडों को मैं सौंप जाऊँगी।

यदि किसी कारणवश यह सम्‍भव न हो सके

तो मेरा पार्थिव शरीर

मेरे कामरेडों के कन्‍धों पर विद्युत शवदाहगृह तक जाना चाहिए

और मेरा अन्तिम संस्‍कार

बिना किसी धार्मिक रीति-रिवाज के,

इण्‍टरनेशनल की धुन और तनी मुट्ठियों के साथ होना चाहिए।

यह भी ध्‍यान रहे कि

ऐसा कोई भी पतित भगोड़ा इसमें शामिल नहीं होना चाहिए,

उसे मेरे पार्थिव शरीर के निकट भी नहीं आने देना होगा।

मैं जानती हूँ, जो आज कहते हैं कि

मेरा 'ब्रेनवॉश' कर दिया गया है (जो मेरे लिए सबसे बड़ी गाली है),

वही मेरी मृत्‍यु पर भी राजनीति करने से बाज़ नहीं आयेंगे,

इसलिए ज़रूरी है कि

मैं अपनी यह इच्‍छा स्‍पष्‍ट लिख दूँ।



साथियो! मुझे मृत्‍यु की नहीं

कर्मक्षेत्र में वापस लौटने की प्रतीक्षा है।

सकारात्‍मक सोच और संकल्‍प के सहारे

कैंसर को पराजित किया जा सकता है

और हर मुमकिन इलाज भी जारी है।

फिर भी यदि मैं अपने मोर्चे पर वापस नहीं लौट सकी,

तो भी कोई बात नहीं,

मेरी उपस्थिति आपके विचारों और संकल्‍पों में

बनी रहेगी।

जानती हूँ, आप शोक को शक्ति में बदलकर

मेरी कमी पूरी कर लेंगे।

आप चाहें तो एक को सौ बना सकते हैं।

हमें बच्‍चों को बचाना है! सपनों को बचाना है!!

हमें विस्‍मृत विचारों को जगाना है,

नये विचारों की खोज करनी है!

हमें नये सैनिकों की भरती करनी है

और जनता को फिर से उसकी

इतिहास-निर्मात्री शक्ति का अहसास दिलाना है।

मैं आपके साथ रहूँ या न रहूँ,

यह युद्ध जारी रहेगा, जीते जाने तक।

कारवाँ चलता रहेगा, जब तक कि मंज़ि‍ल न आ जाये।


-- 31/1/2013

का. शालिनी : एक क्रान्तिकारी ज़ि‍न्‍दगी का सफ़रनामा

कामरेड शालिनी का राजनीतिक जीवन उनकी किशोरावस्‍था में ही शुरू हो चुका था, जब 1995 में लखनऊ से गोरखपुर जाकर उन्‍होंने एक माह तक चली एक सांस्‍कृतिक कार्यशाला में और फिर 'शहीद मेला' के आयोजन में हिस्सा लिया। इसके बाद वह गोरखपुर में ही युवा महिला कामरेडों के एक कम्‍यून में रहने लगीं। तीन वर्षों तक कम्‍यून में रहने के दौरान शालिनी स्‍त्री मोर्चे पर, सांस्‍कृतिक मोर्चे पर और छात्र मोर्चे पर काम करती रहीं। इसी दौरान उन्‍होंने गोरखपुर विश्‍वविद्यालय से प्राचीन इतिहास में एम.ए. किया। एक पूरावक़्ती क्रान्तिकारी कार्यकर्ता के रूप में काम करने का निर्णय वह 1995 में ही ले चुकी थीं। 

जनचेतना, लखनऊ में एक कार्यक्रम में शालिनी
1998-99 के दौरान शालिनी लखनऊ आकर राहुल फ़ाउण्‍डेशन से मार्क्‍सवादी साहित्‍य के प्रकाशन एवं अन्‍य गतिविधियों में भागीदारी करने लगीं। 1999 से 2001 तक उन्‍होंने गोरखपुर में 'जनचेतना' पुस्‍तक प्रतिष्‍ठान की ज़ि‍म्‍मेदारी सँभाली। नवम्‍बर 2002 से दिसम्‍बर 2003 तक उन्‍होंने इलाहाबाद में 'जनचेतना' के प्रभारी के रूप में काम किया। 2004 से लेकर अब तक वह लखनऊ स्थित 'जनचेतना' के केन्‍द्रीय कार्यालय और पुस्‍तक प्रतिष्‍ठान का काम सँभालती रही हैं। इसके साथ ही वह 'परिकल्‍पना', 'राहुल फ़ाउण्‍डेशन' और 'अनुराग ट्रस्‍ट' के प्रकाशन सम्‍बन्‍धी कामों में भी हाथ बँटाती रही हैं। 'अनुराग ट्रस्‍ट' के मुख्‍यालय की गतिविधियों (पुस्‍तकालय, वाचनालय, बाल कार्यशालाएँ आदि) की ज़ि‍म्‍मेदारी उठाने के साथ ही का. शालिनी ने ट्रस्‍ट की वयोवृद्ध मुख्‍य न्‍यासी दिवंगत का. कमला पाण्‍डेय की जिस लगन और लगाव के साथ सेवा और देखभाल की, वह कोई सच्‍चा सेवाभावी कम्‍युनिस्‍ट ही कर सकता था। 2011 में 'अरविन्‍द स्‍मृति न्‍यास' का केन्‍द्रीय पुस्‍तकालय लखनऊ में तैयार करने का जब निर्णय लिया गया तो उसकी व्‍यवस्‍था की भी मुख्‍य ज़ि‍म्‍मेदारी शालिनी ने ही उठायी। 

वह 'जनचेतना' पुस्‍तक प्रतिष्‍ठान की सोसायटी की अध्‍यक्ष, 'अनुराग ट्रस्‍ट' के न्‍यासी मण्‍डल की सदस्‍य, 'राहुल फ़ाउण्‍डेशन' की कार्यकारिणी सदस्‍य और परिकल्‍पना प्रकाशन की निदेशक थीं। ग़ौरतलब है कि इतनी सारी विभागीय ज़ि‍म्‍मेदारियों के साथ ही शालिनी आम राजनीतिक प्रचार और आन्‍दोलनात्‍मक सरगर्मियों में भी यथासम्‍भव हिस्‍सा लेती थीं। 

का. शालिनी एक ऐसी कर्मठ, युवा कम्‍युनिस्‍ट संगठनकर्ता थीं  जिनके पास अठारह वर्षों के कठिन, चढ़ावों-उतारों भरे राजनीतिक जीवन का समृद्ध अनुभव था।  कम्‍युनिज़्म में अडिग आस्‍था के साथ उन्‍होंने एक मज़दूर की तरह खटकर राजनीतिक काम किया। इस दौरान, समरभूमि में बहुतों के पैर उखड़ते रहे। बहुतेरे लोग समझौते करते रहे, पतन के पंककुण्‍ड में लोट लगाने जाते रहे, घोंसले बनाते रहे हैं, दूसरों को भी दुनियादारी का पाठ पढ़ाते रहे या अवसरवादी राजनीति की दुकान चलाते रहे। शालिनी इन सबसे रत्तीभर भी प्रभावित हुए बिना अपनी राह चलती रहीं। एक बार जीवन लक्ष्‍य तय करने के बाद कभी पीछे मुड़कर उन्‍होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। यहाँ तक कि उनके पिता ने भी जब निहित स्‍वार्थ और वर्गीय अहंकार के चलते पतित होकर कुत्‍सा-प्रचार और चरित्र-हनन का मार्ग अपनाया तो उनसे पूर्ण सम्‍बन्‍ध-विच्‍छेद कर लेने में शालिनी ने सेकण्‍ड भर की भी देरी नहीं की। एक सूदख़ोर, व्‍यापारी और भूस्‍वामी परिवार की पृष्‍ठभूमि से आकर, शालिनी ने जिस दृढ़ता के साथ सम्‍पत्ति-सम्‍बन्‍धों से निर्णायक विच्‍छेद किया और जिस निष्‍कपटता के साथ कम्‍युनिस्‍ट जीवन-मूल्‍यों को अपनाया, वह आज जैसे समय में दुर्लभ है और अनुकरणीय भी। 


शालिनी पिछले तीन महीनों से पैंक्रियास के कैंसर से जूझ रही थीं। जनवरी के दूसरे सप्‍ताह में लखनऊ में उन्‍हें कैंसर होने का पता चला। उन्‍हें तत्‍काल दिल्‍ली लाया गया जहां पता चला कि उनका कैंसर चौथी अवस्‍था में है और साथ ही उन्‍हें बोन मेटास्‍टैटिस भी है यानी कैंसर की कोशिकाएं उनकी हड्डियों में फैलने लगी थीं। तभी से दिल्‍ली के धर्मशिला कैंसर अस्‍पताल में उनका इलाज चल रहा था।  गत 29 मार्च को इसी अस्पताल में उनका निधन हो गया। वे केवल 38 वर्ष की थीं।