लखनऊ, 4 अप्रैल। कॉमरेड शालिनी जैसी युवा सांस्कृतिक संगठनकर्ता के अचानक हमारे बीच से चले जाने से जो रिक्तता पैदा हुई है उसे भरना आसान नहीं होगा। उन्होंने एक साथ अनेक मोर्चों पर काम करते हुए लखनऊ ही नहीं पूरे देश में प्रगतिशील और क्रान्तिकारी साहित्य तथा संस्कृति के प्रचार-प्रसार में जो योगदान दिया वह अविस्मरणीय रहेगा।
का. शालिनी की स्मृति में आज यहाँ ‘जनचेतना’ तथा ‘राहुल फ़ाउण्डेशन’ की ओर से आयोजित श्रद्धांजलि सभा में शहर के बुद्धिजीवियों तथा नागरिकों के साथ ही दिल्ली, पंजाब, मुम्बई, इलाहाबाद, पटना, गोरखपुर सहित विभिन्न स्थानों से आये लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और साहित्यप्रेमियों ने उन्हें बेहद आत्मीयता के साथ याद किया। उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के साथ ही सभा में उन उद्देश्यों को आगे बढ़ाने का संकल्प व्यक्त किया गया जिनके लिए शालिनी अन्तिम समय तक समर्पित रहीं।
शालिनी पिछले तीन महीनों से पैंक्रियास के कैंसर से जूझ रही थीं। जनवरी के दूसरे सप्ताह में लखनऊ में उन्हें कैंसर होने का पता चला। उन्हें तत्काल दिल्ली लाया गया जहां पता चला कि उनका कैंसर चौथी अवस्था में है और साथ ही उन्हें बोन मेटास्टैटिस भी है यानी कैंसर की कोशिकाएं उनकी हड्डियों में फैलने लगी थीं। तभी से दिल्ली के धर्मशिला कैंसर अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। गत 29 मार्च को इसी अस्पताल में उनका निधन हो गया। वे केवल 38 वर्ष की थीं।
राहुल फ़ाउण्डेशन के सचिव सत्यम ने कहा कि का. शालिनी का राजनीतिक-सामाजिक जीवन बीस वर्ष की उम्र में ही शुरू हो चुका था। गोरखपुर, इलाहाबाद और लखनऊ में प्रगतिशील साहित्य के प्रकाशन एवं वितरण के कामों में भागीदारी के साथ ही शालिनी जन अभियानों, आन्दोलनों, धरना-प्रदर्शनों आदि में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती रहीं। जनचेतना पुस्तक केन्द्र के साथ ही वे अन्य साथियों के साथ झोलों में किताबें और पत्रिकाएँ लेकर घर-घर और दफ़्तरों में जाती थीं, लोगों को प्रगतिशील साहित्य के बारे में बताती थीं, नये पाठक तैयार करती थीं। गोरखपुर में युवा महिला कॉमरेडों के एक कम्यून में तीन वर्षों तक रहने के दौरान शालिनी स्त्री मोर्चे पर, सांस्कृतिक मोर्चे पर और छात्र मोर्चे पर काम करती रहीं। एक पूरावक़्ती क्रान्तिकारी कार्यकर्ता के रूप में काम करने का निर्णय वह 1995 में ही ले चुकी थीं।
इलाहाबाद में ‘जनचेतना’ के प्रभारी के रूप में काम करने के दौरान भी अन्य स्त्री कार्यकर्ताओं की टीम के साथ वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच और इलाहाबाद शहर में युवाओं तथा नागरिकों के बीच विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक गतिविध्यिों में हिस्सा लेती रहीं। इलाहाबाद के अनेक लेखक और संस्कृतिकर्मी आज भी उन्हें याद करते हैं।
पिछले लगभग एक दशक से लखनऊ उनकी कर्मस्थली था। लखनऊ स्थित ‘जनचेतना’ के केन्द्रीय कार्यालय और पुस्तक प्रतिष्ठान का काम सँभालने के साथ ही वह ‘परिकल्पना,’ ‘राहुल फ़ाउण्डेशन’ और ‘अनुराग ट्रस्ट’ के प्रकाशन सम्बन्धी कामों में भी हाथ बँटाती रहीं। ‘अनुराग ट्रस्ट’ के मुख्यालय की गतिविधियों, पुस्तकालय, वाचनालय, बाल कार्यशालाएँ आदि की ज़िम्मेदारी उठाने के साथ ही कॉ. शालिनी ने ट्रस्ट की वयोवृद्ध मुख्य न्यासी दिवंगत कॉ. कमला पाण्डेय की जिस लगन और लगाव के साथ सेवा और देखभाल की, वह कोई सच्चा सेवाभावी कम्युनिस्ट ही कर सकता था। 2011 में ‘अरविन्द स्मृति न्यास’ का केन्द्रीय पुस्तकालय लखनऊ में तैयार करने का जब निर्णय लिया गया तो उसकी व्यवस्था की भी मुख्य जिम्मेदारी शालिनी ने ही उठायी। वह ‘जनचेतना’ पुस्तक प्रतिष्ठान की सोसायटी की अध्यक्ष, ‘अनुराग ट्रस्ट’ के न्यासी मण्डल की सदस्य, ‘राहुल फ़ाउण्डेशन’ की कार्यकारिणी सदस्य और परिकल्पना प्रकाशन की निदेशक थीं। ग़ौरतलब है कि इतनी सारी विभागीय ज़िम्मेदारियों के साथ ही शालिनी आम राजनीतिक प्रचार और आन्दोलनात्मक सरगर्मियों में भी यथासम्भव हिस्सा लेती रहती थीं। बीच-बीच में वह लखनऊ की ग़रीब बस्तियों में बच्चों को पढ़ाने भी जाती थीं। लखनऊ के हज़रतगंज में रोज़ शाम को लगने वाले जनचेतना के स्टॉल पर पिछले कई वर्षों से सबसे ज़्यादा शालिनी ही खड़ी होती थीं।
कवयित्री कात्यायनी ने उन्हें बेहद हार्दिकता से याद करते हुए कहा कि हर पल मौत से जूझते हुए शालिनी हमें सिखा गयी कि असली इंसान की तरह जीना क्या होता है। आख़िरी दिनों तक शालिनी अपनी ज़िम्मेदारियों और राजनीतिक-सामाजिक गतिविधियों के बारे में ही सोचती रहती थीं। अक्सर फोन पर वे साथियों को कुछ न कुछ जानकारी या सलाह दिया करती थीं। शुरू से ही उन्हें अपने से कई गुना ज़्यादा दूसरों का ख़्याल रहता था। उन्हें मालूम था कि मौत दहलीज़ के पार खड़ी है मगर मौत का भय या निराशा उन्हें छू तक नहीं गयी थी। स्वस्थ होकर ज़िम्मेदारियों के मोर्चे पर वापस लौटने में उनका विश्वास और इसे लेकर उनका उत्साह हममें भी आशा का संचार करता था।
कॉ. शालिनी एक कर्मठ, युवा कम्युनिस्ट संगठनकर्ता थीं। आज के दौर में बहुत से लोगों की आस्थाएं खंडित हो रही हैं, लोग तरह-तरह के समझौते कर रहे हैं, बुर्जुआ संस्कृति का हमला युवा कार्यकर्ताओं के एक अच्छे-खासे हिस्से को कमज़ोर कर रहा है, मगर शालिनी इन सबसे रत्तीभर भी प्रभावित हुए बिना अपनी राह चलती रहीं। एक बार जीवन लक्ष्य तय करने के बाद पीछे मुड़कर उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। उसूलों की ख़ातिर पारिवारिक और सम्पत्ति-सम्बन्धों से पूर्ण विच्छेद कर लेने में भी शालिनी ने देरी नहीं की। एक सूदख़ोर व्यापारी और भूस्वामी परिवार की पृष्ठभूमि से आकर, शालिनी ने जिस दृढ़ता के साथ पुराने मूल्यों को छोड़ा और जिस निष्कपटता के साथ कम्युनिस्ट जीवन-मूल्यों को अपनाया, वह आज जैसे समय में दुर्लभ है और अनुकरणीय भी।
अनुराग ट्रस्ट के अध्यक्ष और चित्रकार रामबाबू, आह्वान के सम्पादक अभिनव सिन्हा, आख़िरी दिनों में शालिनी के साथ रहीं उनकी दोस्त और कॉमरेड कविता और शाकम्भरी, जनचेतना की गीतिका, लेखिका सुशीला पुरी, नम्रता सचान, आरडीएसओ के ए.एम. रिज़वी आदि ने शालिनी के व्यक्तित्व के अलग-अलग पहलुओं को याद किया।
भारतीय महिला फेडरेशन की आशा मिश्रा ने कहा कि शालिनी जिन मूल्यों और जिस विचारधारा के लिए लड़ती रहीं, आखिरी सांस तक उस पर डटी रहीं। छोटी उम्र में जितनी वैचारिक समझदारी, कामों के प्रति गहरी निष्ठा शालिनी में दिखती थी, इसके उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं।
देश के अलग-अलग हिस्सों से बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, एक्टिविस्टों द्वारा भेजे गये कुछ चुनिन्दा शोक-संदेशों को उनके आग्रह पर उनकी ओर से पढ़ा गया। एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के सांस्कृतिक प्रभाग के प्रमुख निनु चपागाईं ने कहा कि उनकी पार्टी के सांस्कृतिक कार्यकर्ता जनचेतना, अनुराग ट्रस्ट और राहुल फ़ाउण्डेशन के साथ एकजुटता व्यक्त करते हैं ताकि वे कामरेड शालिनी के अनेक दायित्वों को पूरा कर सकें। उन असंख्य लोगों के ज़रिए जिनके लिए उन्होंने क्रान्तिकारी साहित्य उपलब्ध तथा कराया तथा सांस्कृतिक संघर्ष के अनेक मोर्चों पर उनके कार्यों से आने वाले अनेक वर्षों तक परिणाम मिलते रहेंगे। 'पहल' के सम्पादक ज्ञानरंजन ने कहा कि हमारे सारे वैचारिक मोर्चों पर काम करते हुए शालिनी ने जो बलिदान दिया वो अपने आप में एक मिसाल है। इतने कठिन समय में ऐसा कोई और उदाहरण हमारे सामने नहीं है। साहित्यकार शिवमूर्ति ने अपने संदेश में कहा कि कामरेड शालिनी का निधन संघर्षशील आम जन के लिए एक अपूरणीय क्षति है। एक लम्बे समय से मैं उनके व्यक्तित्व के विभिन्न कोणों से परिचित था। उनकी मृत्यु पूर्व लिखी गयी लम्बी कविता ‘मेरी आखिरी इच्छा’ पढ़ने से उनके निडर और क्रान्तिकारी विचारों और दृढ़ इच्छाशक्ति का पता चलता है।
पी.यू.सी.एल. की कविता श्रीवास्तव ने शालिनी, उनके कार्यों, उनके लेखन, उनके विचार और उनके साहस को क्रान्तिकारी सलाम करते हुए कहा कि शालिनी का ब्लॉग मेरे जीवन में हुई कुछ सबसे अच्छी बातों में से एक है। वरिष्ठ लेखक-पत्रकार अजय सिंह ने कहा कि मेरे लिए शालिनी और लखनऊ में हज़रतगंज के गलियारे जनचेतना पुस्तक स्टॉल जैसे एक-दूसरे के पर्याय बन गये थे। शालिनी हमेशा हल्की व दोस्ताना मुस्कान से स्वागत करतीं, और नयी-पुरानी किताबों व पत्रिकाओं के बारे में बताती थीं। स्टूल पर सीधी, तनी हुई बैठी शालिनी की मुद्रा मेरे ज़ेहन में अंकित है। प्रगतिशील वसुधा के सम्पादक राजेन्द्र शर्मा ने अपने सन्देश में कहा कि कामरेड शालिनी ने एक साथ कई मोर्चों पर जूझते हुए जनसंघर्ष की एक व्यापक परिभाषा गढ़ी थी। उन जैसी ईमानदार साथी का इतना आकस्मिक निधन स्तब्धकारी दुर्घटना है। हमारी कतारों से एक उज्ज्वल ध्रुवतारा अस्त हो गया।
कवि नरेश सक्सेना, मलय, विजेन्द्र, नरेश चन्द्रकर, कपिलेश भोज, लेखक सुभाष गाताड़े, डा. आनन्द तेलतुम्बडे, चन्द्रेश्वर, वीरेन्द्र यादव, मदनमोहन, भगवानस्वरूप कटियार, प्रताप दीक्षित, शालिनी माथुर, शकील सिद्दीकी, गिरीशचन्द्र श्रीवास्तव, अजित पुष्कल, फिल्मकार फ़ैज़ा अहमद ख़ान, उद्भावना के सम्पादक अजेय कुमार, बया के सम्पादक गौरीनाथ, सबलोग के सम्पादक किशन कालजयी, समयान्तर के सम्पादक पंकज बिष्ट, जनपथ के सम्पादक ओमप्रकाश मिश्र, प्रो. चमनलाल, पत्रकार जावेद नकवी, दिव्या आर्य, डा. सदानन्द शाही, शम्सुल इस्लाम, मुम्बई के हर्ष ठाकौर, लोकायत, पुणे के नीरज जैन, सीसीआई की ओर से पार्थ सरकार, जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण, जलेस के प्रमोद कुमार, सामाजिक कार्यकर्ता अशोक चौधरी, वी.आर. रमण, डा. मीना काला, मोहिनी मांगलिक, हरगोपाल सिंह, नाट्यकर्मी राजेश, डा. साधना गुप्ता सहित अनेक व्यक्तियों ने का. शालिनी के लिए अपने शोक-संदेशों में कहा कि उन्होंने तमाम कठिनाइयों से लड़ते हुए जिस तरह जीने की जद्दोजहद जारी रखी वह सभी नौजवानों और खासकर उन स्त्रियों के लिए एक मूल्यवान शिक्षा है जो इस देश को बेड़ियों से आज़ाद कराने का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं। क्रान्तिकारी आन्दोलन की दशा को ध्यान में रखते हुए, उनकी कमी को पूरा करना आसान नहीं होगा।
इस अवसर पर शालिनी के अन्तिम अवशेषों की मिट्टी पर उनकी स्मृति में एक पौधा लगाया गया।